पाठ - भ्रमर - गीत
कवि - सूरदास जी
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
हंस-सुता की सुंदर कगरी, अरु कुंचनि की छांही ।।
वै सुरभी वै बच्छ दोहिनी, खरिक दुहावन जाहीं ।
ग्वाल बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि गहि बाहीं ।।
यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि मुक्ताहल जाहीं ।
जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं ।।
अनगन भांति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं ।।
सूरदास प्रभु रहे मौन है, यह कहि कहि पछताहीं ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के भ्रमर - गीत शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता सूरदास जी हैं।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि मथुरा मे बैठे श्रीकृष्ण वृदांवन को याद कर रहे थे कि तभी वहाँ उनके परम मित्र ऊधौ आ जाते है और श्रीकृष्ण से उनकी चिंता का विषय पूछते है। तब श्रीकृष्ण उनसे कहते है की हे - ऊधौ मुझे ब्रज भूलता ही नहीं है बार-बार रह-रहकर ब्रज की याद आती है। हंस-सुता अर्थात सूर्य की पुत्री(यमुना) का वो पावन किनारा और सुंदर बगीचे मे लगे कदंब के पेड़ की छाया। वो सुंदर और प्यारी गायें और वो उनके सुकोमल छोटे- छोटे बछड़े जिन्हे हम चराने जाते थे और संध्या समय दूध दोहते थे। ग्वाल बालो के हाथों मे हाथ डालकर नाचना गाना और पूरे ब्रज मे धमाचौकड़ी करना यह सब अब मुझे भूलता नहीं है। ये मथुरा तो स्वर्ण नगरी है, तरह - तरह के मणियों हीरो से तथा सम्पूर्ण सुख- सुविधा, ऐश्वर्य और शांति से युक्त नगरी है परंतु फिर भी जब भी मुझे ब्रज मे बिताऐ हुए सुखों की याद आती है तो मै वहाँ जाने को आतुर हो जाता हूँ मेरा मन तड़प उठता है पर मथुरा के बारे मे सोचकर मे फिर शांत हो जाता हूँ। मैंने ब्रज मे माता यशोदा और बाबा नंद के साथ अनेकों प्रकार की अनगिनत लीलाऐ की और सभी का मन मोहा। इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण शांत हो जाते है और अपने उन पलों को याद करते हुए मन ही मन पछताने लगते है।
बिनु गुपाल बैरिनि भई कुंजैं।
तब वै लता लगतिं तन सीतल, अब भइ बिषम जवाल की पुंजै ।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलनि अलि गुंजै ।।
पवन, पान, घनसार, सजीवन, दधि सुत किरनि भानु भई भुंजै ।।
यह ऊधौ कहियौ माधौ सौं, मदन मारि कींही हम लुंजै ।।
सुरदास प्रभु तम्हरे दरस कौं, मग जोवत अँखियाँ भई छुंजै ।।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि जहाँ एक तरफ श्रीकृष्ण ब्रज को भूल नहीं पा रहे है वही दूसरी तरफ ब्रज मे गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के वियोग मे अत्यंत व्याकुल होकर कह रहीं हैं की श्रीकृष्ण के बिना ब्रज की सभी गलियाँ सूनी हो गई है और वृक्षों की ये लतायें जो कृष्ण के होनें तक हमे शीतलता प्रदान करती थी आज वहीं लतायें हमें अंगार की भांति जला रहीं हैं। व्यर्थ मे ही ये यमुना बह रही है, बेकार मे ही ये पक्षी चहक रहे है,और व्यर्थ मे ही ये कमल के फूल खिल रहे है क्योंकि अब इन्हें देखने और सुनने वाला तो यहाँ है ही नहीं। वायु, जल, कपूर, संजीवनी, और ये चन्द्रमा की किरणे हमे सूर्य की भांति ही हमारे तन और मन को तपा रहीं है। तभी वहाँ पर श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गए उनके मित्र ऊधौ गोपियों को निर्गुण बह्म की उपासना करने का संदेश देने के लिए पहुँच जाते है तब गोपियाँ उनसे कहती है की हे - ऊधौ मथुरा जाकर श्रीकृष्ण से कह देना की हमे उनके वियोग मे ऐसा प्रतीत होता है जैसे कामदेव ने हमे अपने बाणो से मारकर अपाहिज बना दिया है। सूरदास जी कहते है की हे - प्रभु तुम्हारे दर्शन को व्याकुल गोपियाँ की आँखे धुंधली हो गई हैं तुम्हारी राह देखते - देखते।
हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम बचन नंद नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी ।।
जागत-सोवत स्वप्न दिवस-निसि कान्ह-कान्ह जकरी ।।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यों करुई ककरी
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी ।
यह तौ सूर तिनहिं लै सौंपो, जिनके मन चकरी ।।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं है की हे - ऊधौ हमारे प्रभु श्रीकृष्ण हारिल पक्षी की उस लकड़ी की भांति है जिसे वह कभी भी नहीं छोड़ता तो भला हम अपना एकमात्र सहारा अर्थात श्रीकृष्ण को कैसे छोड़ सकते हैं। इसीलिए हमने अपने प्रभु नंद के पुत्र अर्थात नंदलाल श्रीकृष्ण को अपने सच्चे मन से पूरी दृढ़ता के साथ पकड़कर अपने दिलों-दिमाग मे बसा लिया है। जागते - सोते दिन हो या रात हम अपने सपनों मे सिर्फ श्रीकृष्ण को ही देखते हैं। हे - ऊधौ हमें ये तुम्हारी जोग की बातें सुनकर ऐसा लग रहा है मानो हम किसी कड़वी ककड़ी का सेवन कर रहे हो। और हे - ऊधौ ये तुम हमारे लिए कौन सा रोग ले आये हो, जिसे न पहले कभी देखा है न सुना है और न ही किया है इसीलिए ये रोग जाकर तुम उन्हे ही सौंप दो जिनके मन चकरी के समान है अर्थात जिनका मस्तिष्क चंचल हो।
ऊधौ जोग जोग हम नाहीं ।
अबला सार ज्ञान कहं जानै, कैसैं ध्यान धराहीं ।।
तेई मूंदन नैन कहत हो, हरि मूरति जिन माहीं
ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतैं सुनी न जाहीं ।।
स्त्रवन चीरि सिर जटा बंधावहु, ये दुःख कौन समाहीं ।
चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरह अनल अति दाहीं ।।
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तौ है अप माहीं ।
सूर स्याम तैं न्यारी न पल छिन, ज्यौ घट तैं परछाहीं ।।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ हम इस योग के योग्य नहीं हैं हम सभी तो अबला स्त्रियाँ हैं और हमें ये तुम्हारी ज्ञान की बातें समझ नहीं आती, और जब हमें ये बातें समझ मे ही नहीं आ रही है तो भला हम तुम्हारी बातों मे कैसे ध्यान दें। हे - ऊधौ तुम हमसे उन आँखों को बंद करने के लिए कह रहे हो जिनमे स्वंय श्रीकृष्ण की छवि वास करती है। और हे - ऊधौ ये जो तुम हम अबला स्त्रियों से कपट की बातें कर रहे हो, अब हमसे ये बातें और नहीं सहीं जा रही हैं। तुम कह रहे हो की हम अपने कानों को चीरकर उनमे मुद्रा धारण कर ले और अपने सिर पर जटा बांध ले परंतु क्या हम अबला स्त्रियाँ इस भयंकर दुःख को सहन कर पायेंगी। हे - ऊधौ पहले से ही हमारा शरीर श्रीकृष्ण के वियोग की अग्नि मे दहक रहा है और तुम हमसे कह रहे हो की हम श्रीकृष्णरूपी चंदन को त्यागकर योग रूपी भस्म को लगा ले। जब हमारा शरीर पहले से ही दहक रहा है तो भला हम गोपियाँ भस्मरूपी योग को क्यो अपनायें? हे - ऊधौ ये जितने भी जोगी है जो अपनों को भूलकर ज्ञान और ईश्वर की तलाश मे गली गली मे भटकते है वो तो ज्ञान और ईश्वर तो हमारे ही अंदर विद्यमान है। गोपियाँ कहती है जिस प्रकार एक घड़े से उसकी परछाई दूर नहीं हो सकती उसी प्रकार हम भी श्रीकृष्ण की यादों से दूर नहीं हो सकते। इसीलिए हे - ऊधौ ये अपना निर्गुण बह्म का ज्ञान किसी और को दो जाकर क्योंकि इसका असर हम पर नहीं होगा।
लरिकाई कौ प्रेम कहौ अलि, कैसे छूटत?
कहा कहौं ब्रजनाथ चरित, अंतरगति लूटत।।
वह चितवनि वह चाल मनोहर, वह मुसकानि मंद धुनि गावनि ।
नटवर भेष नंद नंदन कौ वह विनोद, वह बन तैं आवनि ।।
चरन कमल की सौंह करति हौं, यह संदेश मोहिं न बिष सम लागत ।
सूरदास पल मोहिं न बिसरति, मोहन मूरति सोवत जागत ।।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ श्रीकृष्ण के साथ तो हमारे बचपन की दोस्ती और प्रेम है। अब वह प्रेम समाप्त होना बहुत ही कठिन है। अब हम आपसे श्रीकृष्ण की लीलाओं का बखान क्या करे? उनकी नटखट लीलाऐं तो हमारे ह्दय को लूट ले जाती थी। उनकी वो प्यारी सी मुस्कान और वह मनोहर चाल जो किसी का भी मन मोह ले। उनका वो धीरे- धीरे मुस्कुराते हुए गुनगुनाना। नंदलाल अर्थात श्रीकृष्ण का वृंदावन से नटवर वेश बनाकर ब्रज मे सभी को हंसाना, हम नहीं भूल सकते वह सब। मै उन्ही श्रीकृष्ण के चरण कमलो की सौगंध खाकर कहती हूँ कि मुझे तुम्हारे द्वारा दिया गया संदेश विष से कम नहीं लग रहा है। गोपियाँ कहती है कि सोते - जागते एक भी पल हमे ये मोहिनी सूरत भुलाए से भी नहीं भूलती हैं।
कहत कत परदेसी की बात ।
मंदिर अरध अवधि बदि हमसौं, हरि अहार चलि जात ।।
ससि रिपु बरष, सूर रिपु जुग बर, हर-रिपु कीन्हौ घात ।
मघ पंचक लै गयौ सांवरो, तातै अति अकुलात ।।
नखत, वेद, ग्रह, जोरि, अर्ध करि, सोइ बनत अब खात ।।
सूरदास बस भई बिरह के, कर मींजै पछितात ।।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ तुम किस परदेसी की बात कर रहे हो। मंदिर अरध अर्थात आधा घर, आधा घर अर्थात पाग, पाग अर्थात पक्ष, पक्ष अर्थात पन्द्रह दिन बोलकर श्रीकृष्ण यहाँ से गए थे और हरि अहार अर्थात शेर का भोजन (मांस), मांस अर्थात मास , मास अर्थात महीना एक महीना बीत गया है। ससि रिपु (चन्द्रमा का विरोधी) अर्थात सूर्य, सूर्य अर्थात दिन , सूर रिपु (सूर्य का विरोधी) अर्थात चन्द्रमा, चन्द्रमा अर्थात रात्रि और हर - रिपु (महादेव के दुश्मन) अर्थात कामदेव। गोपियाँ कह रहीं है कि श्रीकृष्ण के बिना दिन वर्ष के समान और रातें युगो के समान लगती है और हमे श्रीकृष्ण के वियोग मे ऐसा प्रतीत होता है मानो कामदेव ने हमपर प्रहार कर दिया हों। मघ - पंचक अर्थात माघ के महीने का पांचवा नक्षत्र अर्थात चित्रा, चित्रा अर्थात चित, चित अर्थात मन। हमारा मन तो श्रीकृष्ण अपने साथ मथुरा लेकर चले गयें है शायद इसीलिए यहाँ हमारा मन किसी और चीज मे नहीं लगता है। नखत, वेद, ग्रह, (27+4+9 = 40-20 = 20) बीस अर्थात विष। गोपियाँ कहती हैं की श्रीकृष्ण के वियोग में अब हमसे सिर्फ जहर ही खाते बनता है।
निसि दिन बरसत नैन हमारे ।
सदा रहति बरषा रितु हम पर, जब तैं स्याम सिधारे ।।
दृग अंजन न रहत निसि बासर, कर कपोल भए कारे ।
कंचुकि - पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे ।।
आँसू सलिल सबैं भइ काया, पल न जात रिस टारे ।
सूरदास प्रभु यहै परेखौ, गोकुल काहैं बिसारे।।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ दिन रात हमारे नेत्र बरसते रहते है। जब से श्याम यहाँ से मथुरा गए है तब से हम पर हमेशा वर्षा ऋतु रहती है क्योंकि श्रीकृष्ण की याद मे हमारे नेत्र हर पल रोते रहते है। हमारी आँखों मे लगा काजल एक भी पल ठहरता नहीं है रोते - रोते सारा काजल बह जाता है और हमारे गाल और हाथ काजल पोछतें - पोछतें काले हो जाते है। हमारा दुपट्टा कभी भी सूखता ही नहीं है और हमे ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारे ह्दय के बीच से आंसुओं के नाले बह रहे हो। श्रीकृष्ण के यहाँ से जाने के बाद हमे ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारा शरीर आंसुओं के सागर मे डूब गया हो। और अगर हम किसी पर गुस्सा करे भी तो क्या करे और किस पर करें, क्योंकि ऐसा करने से भी हम श्रीकृष्ण को भूल नहीं सकते। गोपियाँ रोते हुए पछता रहीं है कि आखिर हमने श्रीकृष्ण को यहाँ से जाने ही क्यों दिया?
ऊधौ भली भई ब्रज आए ।
बिधि कुलाल कीन्हे कांचे घट, ते तुम आनि पकाए ।।
रंग दीन्हौं हो कान्ह सांवरै, अंग अंग चित्र बनाए ।
पातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए।।
ब्रज करि अवां जोग ईधन करि, सुरति आनि सुलगाए ।
फूंक उसास बिरह प्रजरनि संग, ध्यान दरस सियराए ।।
भरे संपूरन सकल प्रेम - जल, छुवन न काहू पाए ।
राज काज तैं गए सूर प्रभु, नंद नंदन कर लाए ।।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ बहुत अच्छा हुआ जो तुम श्रीकृष्ण का संदेशा लेकर ब्रज आये। ईश्वर रूपी कूम्हार ने तो हमें एक कच्चे घड़े की तरह बनाया था। परंतु तुमने यहाँ हमे श्रीकृष्ण का संदेशा सुनकर पक्का कर दिया है, और उस पके घड़े रूपी गोपियों अर्थात हम सभी को श्रीकृष्ण के सांवले रंग मे रंग दिया है। और उस घड़े अर्थात हम सभी गोपियों के अंग-अंग पर श्रीकृष्ण के चित्र बना दिए है। श्रीकृष्ण की यादों मे रोते हुए जो हमारे नेत्रों से प्रेम की वर्षा हो रही है उससे हमारे नेत्र गले नहीं क्योंकि हम पर समयरूपी छप्पर छाया हुआ है। तुमने यहाँ आकर ब्रज को आग का भठ्ठा, उसमे अपने योग रूपी ज्ञान का ईधन झोंककर उसे स्मृतिरूपी आग से सुलगाकर उसमे वियोगरूपी सांसो की फूंक मनाकर ऐसी आग जलायी कि उसमे कच्चे घड़े को पक्का कर दिया। अब हमने उस पक्के घड़े रूपी अपने पूरा शरीर मे प्रेमरूपी जल भर लिया है और अब हम उसे किसी और को छूने नहीं देंगे। फिर गोपियाँ कहती है कि हमारे प्रभु तो राज्य कार्य के लिए गए हैं और श्रीकृष्ण का इंतजार करते रहेंगे जब तक वो लौटकर नहीं आ जाते।
अँखियाँ हरि दरसन की भूखीं ।
कैंसे रहति रूप रस रांची, ये बतियाँ सुनि रूखी ।।
अवधि गनत, इकटक मग जोवत, तब इतनौ नहिं झूखी ।
अब यह जोग संदेसौ सुनि सुनि, अति अकुलानी दूखीं ।।
बारक वह मुख आनि दिखावहु, दुहि पय पिवत पतूखीं ।
सूर सुकत हठि नाव चलावत, ये सरिता हैं सूखीं ।।
व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ हमारी आँखें श्रीकृष्ण के दर्शन की भूखी और व्याकुल है। अब हमें तुम्हारी ये रुखी - सूखी बातें अच्छी नहीं लग रहीं है क्योंकि जिस मनुष्य के पास श्रीकृष्ण के प्रेम का रस हो, उसे भला तुम्हारी ऐसी निर्गुण बह्म की बातें कहा अच्छी लगेंगी। हमें इतना दुःख उस समय भी नहीं हुआ था, जब हम श्रीकृष्ण की याद मे राहों को निहारते हुए दिन गिन - गिनकर उनके लौटने की कामना कर रहें थे जितना कि दुःख आज हमे तुम्हारी बातें सुनकर हो रहा है। ये बार-बार योग का संदेशा सुनकर हमारा मन अत्यंत व्याकुल और दुःखी हो रहा है। हे - ऊधौ तुम जब हमें बार-बार योग का संदेश दे रहे हो तो हमें श्रीकृष्ण का वह रूप याद आ रहा है जब वे गाय का दूध दोहकर दोने मे दूध पी रहें थे। गोपियाँ कहती हैं कि हे - ऊधौ तुम यहाँ से लौट जाओ क्योंकि जिस प्रकार सूखी नदी में नाव नहीं चल सकती, उसी प्रकार हमारा प्रेम भी अटल है और हम श्रीकृष्णरूपी प्रेम का रस त्यागकर निर्गुण बह्म की उपासना नहीं कर सकते। क्योंकि हमारा संकल्प अटल है।