संकेत - कबहुंक हौं ---------------------- भक्ति लहौंगो।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के विनयपत्रिका शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता तुलसीदास जी हैं।
प्रसंग- तुलसीदास अपने ईष्ट भगवान श्रीराम से आशीर्वाद मांगते हुए कह रहे है कि हे-प्रभु मुझे साधु संतो का स्वभाव ग्रहण करने का आशीर्वाद दो ताकि मै आपकी भक्ति के माध्यम से इस संसार रूपी भवसागर से पार हो सकूं।
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि हे-प्रभु मुझे यह आशीर्वाद दो कि मै अपनी जीवन-शैली संतो के समान बना पाऊं। और मुझे पूर्ण विश्वास है मै श्रीराम की कृपा से संत स्वभाव ग्रहण कर लूंगा। हे-प्रभु मुझे जितना लाभ हो अर्थात मुझे जो कुछ भी मिले या मेरे पास जितना है मै उसी मे संतुष्ट रहूँ। उसके अलावा और कुछ भी ना चाहूँ अर्थात किसी से कोई भी आस ना रखूं। और मै बिना किसी स्वार्थ के अपने मन, क्रम और वचन से निरंतर सभी की मदद कर सकूँ। मै लोगों के कटु वचनों को सुनने के बाद भी क्रोध की अग्नि में न जलूँ। और मै अपने घमंड से रहित शीतल और शांत मन से किसी के भी गुण-दोषों का बखान न करूं। हे -प्रभु मै कब इस शरीर की चिंता से मुक्त होकर सुख दुःख को समान भाव से सह पाऊंगा। तुलसीदास जी कह रहें है कि हे परमपिता परमेश्वर मै कब इस संसार रूपी भावनाओं के महासागर से निकलकर अपने पथ से विचलित हुए बिना हरि भक्ति को ग्रहण करूंगा, और साधु संतो के स्वभाव और उनके आचरण को ग्रहण कर पाऊंगा।
संकेत - ऐसी मूढ़ता या ------------------- निज पन की।।
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि मेरा मन इतना मूर्ख है कि रामभक्ति रूपी गंगा नदी को छोड़कर विषय वासना रूपी ओस की कणों से अपनी प्यास बुझाना चाहता है। मेरा मन उसी प्रकार है जैसे चातक पक्षी आकाश मे उठते धुएं को बादल समझकर टकटकी लगाकर बस उसी को ही देखता रहता है। उस धुएं मे न तो पानी होता है और न ही उससे शीतलता प्रदान होती है बस सिर्फ और सिर्फ नेत्रों की ही हानि होती है। जैसे कांच मे बाज अपनी ही परछाई को देखकर उसे अपना शिकार समझ लेता है और भूख से व्याकुल होकर अपने शिकार को पकड़ने की चाहत में कांच को तोड़ने के चक्कर मे अपनी चोंच को ही घायल कर लेता है। ठीक वैसी मनोव्यथा मेरी है। हे - कृपानिधान परमपिता परमेश्वर आप तो मेरे मन की स्थिति जानते है मै कहां तक आपको अपने मन की व्यथा कहूँ। तुलसीदास जी कहते है कि हे - प्रभु आप मेरे असहनीय दुःख का हरण करके अपने भक्त की लाज रख लिजिए।
संकेत - हे हरि! -------------------------- कबहूँ न पावै।।
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि हे-हरि ! आप कष्ट हरण करने वाले के रूप मे प्रसिध्द है तो फिर आप अभी तक आपने मेरे भ्रम का हरण क्यों नहीं किया। मै जानता हूँ कि ये संसार असत्य और मिथ्या है। हे-हरि ! जब तक तुम्हारी कृपा नहीं होती , ये झूठ रूपी संसार भी सत्य प्रतीत होता है। मेरी स्थिति उस तोते की भांति है जिसने डाल को पकड़कर रखा है, परंतु तोते को लगता है कि डाल ने उसे पकड़ रखा है। मै उसी तोते के समान ही मूर्ख हो गया है। जब तक आप के ज्ञान की रोशनी नहीं मिलती तब तक हमें लगता है कि संसार ने हमे अपनी मोह-माया मे लपेट रखा है परंतु सच तो यह है कि हम संसार की मोह-माया मे लिपटे होते है। एक बार मैने ये सपना देखा कि मुझे बहुत से रोगों और बाधाओं ने घेर लिया है, और मृत्यु मुझे अपने साथ ले जाने के लिए उपस्थित हो गई है। वैद अनेकों प्रकार के उपचार कर रहे है, परंतु सबकुछ असफल है। पर अचानक नींद से उठने के बाद मुझे यह आभास हुआ कि यह सबकुछ तो एक भयावह सपना था और मै पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ। इस सपने के बाद मुझे यह आभास हुआ कि ये संसार एक स्वप्न के भांति है। जो सिर्फ हमें दुःखो का दर्द ही देता है। परंतु ईश्वर रूपी ज्ञानसागर प्राप्त करने के बाद हम इस संसार की मोह-माया रूपी नींद से जाग जाते है और अपार सुख और शांति की अनुभूति करते हैं। वेद, पुराण, स्मृतिग्रंथ, गुरू एंव साधुओं का सत्य कथन है कि ये संसार दुःखों का सागर है इस संसार को छोड़कर श्रीराम की कृपा के बिना कोई भी विपत्ति टल नहीं सकती। इस संसाररूपी भव सागर से पार उतरने अनेको साधन हैं। ग्रंथो पुराणों मे महान संतो और साधुओं ने अपने-अपने तरीके बताए है परंतु तुलसीदास जी कहते है कि अहंकार का भावना का त्याग किऐ बिना रामभक्ति महासागर मे डुबकी लगाने का सुख प्राप्त नहीं होगा।
संकेत - अब लौं नसानी ------------------ कमल बसैहौं।।
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि मैने संसार की मोह-माया मे फंसकर अपना बहुत जीवन व्यर्थ किया है परंतु अब और नहीं। अब मेरी जितनी भी आयु शेष बची है उसमे मै सिर्फ अपने जीवन का सदुपयोग करुंगा। ये संसार एक अज्ञानता रूपी रात के समान है। और मै इसी रात के अंधेरे मे खोया हुआ था। लेकिन श्रीराम की कृपा से मै अज्ञानता रूपी रात के अंधेरे से बहार निकलकर अज्ञानरूपी नींद से जाग चुका हूँ। और मै इस रात को दोबारा से स्वंय को डसने नहीं दूंगा। मुझे तो अब रामरूपी अनमोल चिंतामणि मिल गई है और अब मैं इसे अपने हाथों से खिसकने नहीं दूंगा। मै अपने प्रभु श्रीराम के सुंदर और सांवले शरीर को पवित्र कसौटी बनाकर उस पर मै अपने कंचनरूपी (सोनेरूपी) शरीर को कसुंगा। तुलसीदास जी कहते है कि मुझे अपने बस मे करके अब तक ये इंद्रियाँ मुझ पर खूब हंसी और मेरा मजाक उड़ाया, परंतु मैने अब इन इंद्रियों को अपने बस मे कर लिया है और मै इन्हे अपने ऊपर हंसने का मौका नहीं दूंगा। मै आज से संकल्प लेता हूँ। कि मै अपने मन को भँवरा बनाकर श्रीराम के चरणकमलों मे वास करुंगा।