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गुरुवार, 20 मई 2021

कैकेयी का अनुताप (कवि - मैथिलीशरण गुप्त ) व्याख्या सहित


 

संकेत -
तदनन्दर ------------------------ महकर।

संकेत- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के कैकेयी का अनुताप शीर्षक से लिया गया है और इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त जी हैं।

व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि सभी अयोध्यावासी प्रभु श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण के साथ संसाररुपी तंबू अर्थात नील गगन के नीचे अपनी कुटिया के सामने बैठे हुए थे। उस नील गगन मे विद्यमान टिम -टिमाते तारो को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो की जैसे सभी तारे दीपक की तरह जगमगा रहें हो। वहाँ बैठे हुए सभी देवताओं के नेत्र बड़ी ही आतुरता से एक टक होकर राम की तरफ देख रहे थे। सभी लोग भयभीत होकर परिणाम के लिए उत्सुक थे। वहाँ बैठे सभी लोगों को करौंदी के प्रफुल्लित कुंज से उत्पन्न सुगंधित हवा बार - बार महक - महककर पुलकित कर रही थी।

संकेत -
वह चन्द्रलोक -----------------हनन था मेरा।

व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं कि आज धरती पर ऐसी दूधरूपी चांदनी परत बिछी है वैसी चांदनी शायद कभी चंद्रलोक मे भी नहीं हुई होगी। कुछ देर पश्चात प्रभु श्रीराम समुद्र की तरह शांत और गंभीर वाणी में बोले की हे- भरत अब तुम मुझे अपनी इच्छा बताओ कि किस प्रयोजन से तुम्हारा यहाँ आना हुआ।
इतना सुनकर वहाँ बैठे सभी लोग सतर्क होकर ध्यानपूर्वक उनकी बातें सुनने लगे जैसे सभी का कोई सपना भंग हो गया हो। तभी भरत प्रभु श्रीराम से रोकर कहते हैं कि हे- भईया क्या आपको अब भी लगता है की मेरी कोई इच्छा शेष रह गई है अर्थात मेरी कोई भी इच्छा शेष नहीं रह गई है क्योंकि मुझे तो अब निष्कंटक राज्य मिल गया है क्या इसके बाद भी मै किसी चीज की कल्पना करुँगा। मेरी वजह से आपने जंगल मे पेड़ों के नीचे बसेरा किया , क्या इसके बाद भी मेरी कोई इच्छा शेष रह गई है। मै आपसे बिछड़कर तड़प - तड़पकर मर रहा हूँ। मै अभागा भला क्या इच्छा रखूँगा। हाय शायद इसी अपयश के लिए ही मेरा जन्म हुआ था और मेरी माता के हाथों से ही मेरा हनन लिखा था।

संकेत -
अब कौन अभीप्सित -------------------- पाई जिसको?"

व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि भरत राम से कह रहे है कि भईया अब मेरी कोई भी इच्छा और अभिलाषा शेष नहीं है। मेरा तो संसार ही नष्ट हो गया है और भला जिसका घर , संसार ही बर्बाद हो गया हो तो भला ऐसे मनुष्य की कौन सी इच्छा शेष रह जायेगी। मैने आज स्वंय से ही मुंह फेर लिया है। तो हे- प्रभु अब आप ही बताओ कि मेरी कौन सी अभिलाषा शेष रह गई होगी। भरत की इन मार्मिक बातों को सुनकर भगवान श्रीराम भावुक हो गए और रोते हुए भरत को अपने गले से लगा लिया। प्रभु श्रीराम ने भरत को गले से लगाकर अपने आंसुओं से उनके निर्मल ह्दय को सींच दिया अर्थात उन्होने भरत के ह्दय मे विद्यमान ग्लानि, लज्जा को अपने शुद्ध आंसुओं से धोकर उसे स्वच्छ और शीतल बना दिया। कवि कहता है की ऐसे महान भरत के ह्दय मे विद्यमान प्रभु श्रीराम के लिए प्रेम को कोई भी नहीं समझ सकता। भरत को जन्म देने वाली उनकी माता स्वंय उन्हे न जान सकी तो भला कोई और उनके ह्दय की गहराई को क्या पहचान सकेगा।

संकेत -
"यह सच है ----------------------------- घर भैया।

व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है की कैकेयी प्रभु श्रीराम से कहती हैं कि हे - पुत्र अब तुम हमारे साथ अपने घर अयोध्या लौट चलो। कैकेयी के इन वचनो को सुनकर वहाँ बैठे सभी लोग बड़ी ही हैरानी से उनकी ओर देखने लगे।
महारानी कैकेयी विधवा की तरह सफेद साड़ी मे लिपटी हुई ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो ठंडी के मौसम मे गिरने वाले सफेद बर्फ के गोलो की तरह चमक रहीं हों। वहां उनके ह्दय मे असंख्य भावो की तरंगे उठ रही थी। आज उस सभा में सिंहनी रूपी कैकयी गोमुखी गंगा के भाॅति शांत बैठी हुई थी। कैकयी राम से कहती है की हे- राम जिस भरत को मैने जन्म दिया और मै ही उसे समझ नहीं पाई अगर यह बात सच है तो राम हमारे साथ घर चलो, मै तुम्हारी माता आज तुमसे हाथ जोड़कर विनती करती हूँ की हमारे साथ अयोध्या नगरी लौट चलो।

संकेत -
अपराधिन मै हूँ -------------------------- सब चुन लो।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकयी राम से कहती है की हे- राम मै तुम्हारी माता, अपराधी हूँ तुम्हारी। वैसे तो शपथ दुर्बलता का चिह्न है लेकिन भला किसी अबला स्त्री के लिए इससे बेहतर कोई और रास्ता क्या हो सकता है? और यदि तुम्हे ऐसा लगता है कि मै भरत द्वारा उकसाई गई हूँ तो अपने पति के समान ही अपने बेटे भरत को भी खो दूं। हे - राम मुझे अब मत रोको मै जो कह रही हूँ, उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो और यदि तुम्हे मेरे वचनों मे कोई सारांश मिलता है तो तुम उसे भी चुन लो।

संकेत -
करके पहाड़ सा ------------------------- निज विश्वासी।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकयी राम से कह रही है की हे- राम मैंने इतना बड़ा पाप किया है और उसके बाद भी मै मौन रह जाऊँ। क्या मै राई भर भी पश्च्चाताप न करूं ऐसा तो नहीं हो सकता मै अवश्य अपने बुरे कर्मो का पश्च्चाताप करूंगी। इसके बाद कवि उस रात्रि समय का वर्णन करते हुए कहता है कि आकाश में नक्षत्रो से युक्त चांदनी रात मोती रूपी छोटी - छोटी ओस की बूंदे टपका रही थी। और सम्पूर्ण सभा राम से दूर हो जाने के डर से अपने ह्दय को थपकाते हुए सांत्वना दे रही थी।
वहाँ बैठी महारानी कैकयी सफेद साड़ी मे उल्का पिंड के भांति सभी दिशाओ मे चमक रही थी। वहां बैठे सभी लोग भयभीत और आश्चर्यचकित थे परंतु महारानी कैकेयी अपने कर्मो पर पछता रही थी और अपने कर्मो के लिए लज्जित थी। कैकयी अपनी दासी मंथरा को कोसते हुए कहती है कि उस निर्लज मंथरा का भी क्या दोष क्योंकि जब मेरा अपना ही मन विश्वासघाती निकला तो मै भला किसी और को क्या दोष दूं।

संकेत -
जल पंजर - गत ------------------------- कुपुत्र भले ही।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकेयी अपने ह्दय से कह रही है कि हे - मेरे अभागे ह्दय अब तू अपने किए हुए कर्मो के लिए भीतर ही भीतर पश्च्चाताप की अग्नि मे जल, क्योंकि जलन के भाव सर्वप्रथम तुझमें ही जागे थे। हे - ह्दय पर क्या सिर्फ तुझमें एक मात्र ईर्ष्या भाव बचा था, इसके अलावा और कोई भाव क्या तुझमें शेष नहीं बचा था? क्या तुम्हारी नजरों मे वात्सलय, ममता का कोई मूल्य नहीं बचा था? और आज तेरे ही बुरे कर्मो की वजह से मेरा अपना पुत्र ही पराया हो गया है। आज भले ही मुझ पर तीनों लोक थूके, जिसके ‌मन मे मेरे लिए जो भी अपशब्द हो वह मुझे बोले। जिसके मन मे जो कुछ भी बुरा है वो सभी मुझे बोलो, कोई भी मत चूकों। क्योंकि मै हूँ ही इसी लायक। परंतु भरत की माता होने का अधिकार मुझसे कोई भी मत छीनो। हे - राम मै बस तुम से यही एक विनती करती करती हूँ। आज तक संसार यह कहता था कि पुत्र भले ही कुपुत्र निकल जाये किंतु माता कभी भी कुमाता नहीं हो सकती। परंतु मैंने तो ये कहावत भी झूठी सिद्ध कर दी, और अपने ही पुत्र को वन भेजकर कुमाता बन गई।

संकेत -
अब कहें सभी -------------------------- भरत सा भाई।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकयी सभी से कह रहीं है कि आज शायद मेरे विधाता भी मुझसे नाराज है इसीलिए उन्होंने इस कहावत को ही उल्टा कर दिया कि पुत्र सुपुत्र ही रहा , परंतु माता कुमाता हो गई। मैंने भरत के दृढ़ ह्दय को देखे बिना सिर्फ उसके सुकोमल शरीर को देखा और अपने पुत्र के लिए स्वार्थी बन गई। मैंने एक बार भी परमार्थ के बारे मे नहीं सोचा अर्थात उसका परिणाम क्या होगा , उसके पीछे का परम अर्थ क्या होगा ये सबकुछ नहीं सोचा। इसी कारण आज यह विपदा आ पड़ी है। युगो - युगो तक अब इस संसार मे इतिहास के पन्नों मे मेरी कहानी को सुनकर लोग कहेंगे कि अयोध्या में कैकेयी नामक बड़ी ही अभागिन रानी रहा करती थी जिसने अपने ही पुत्र को वन भेजा था और इसी वजह से उसके पति राजा दशरथ का स्वर्गवास हुआ था। धरती पर जन्म लेने वाला हर जीव मेरी कहानी को सुनेगा और मुझे धिक्कारते हुए कहेगा कि कैकेयी जैसी रानी को स्वार्थ ने इतना घेर लिया कि वह अपने बेटे के साथ अन्याय कर बैठी। कवि कहता है कि धन्य है कैकेयी जैसी माता, सौ बार सत - सत नमन ऐसी माता को जिसने भरत जैसे बेटे को जन्म दिया।

संकेत -
पागल सी प्रभु -------------------------- लिया था मैंने।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि सम्पूर्ण सभा प्रभु श्रीराम के साथ चिल्लाकर तेज ध्वनि मे बोली की सौ बार धन्य है भरत की माता जिन्होने ऐसे तेजस्वी , निडर बालक एंव राम भक्त को जन्म दिया। फिर कैकेयी राम से कहती है कि मेरा एक ही पुत्र था मेरा इकलौता सहारा ,आज मैंने उसे भी खो दिया। मैंने यहाँ पर बड़ा भयंकर अपयश कमाया है। मैंने अपने पुत्र भरत के लिए अपनी सारी सुख - सुविधा और अपना स्वर्ग भी निछावर कर दिया। यहाँ तक मैंने तुमसे तुम्हारे अधिकार छीनकर अपने पुत्र को दे दिए।

संकेत -
पर वही आज -------------------------- दयापूर्ण हो तब भी।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकेयी राम से कह रहीं है कि हे - राम आज मेरा पुत्र भरत दीन दुखियों की तरह रो रहा है। उसकी हालत उस हिरन के भांति हो गई है जो पेड़ का पत्ता हिलने से भी शंकित हो जाता है अर्थात आज भरत के मन मे अनेक शंकाओ का वास है। वह भीतर ही भीतर डर रहा है। आज मेरे मस्तिष्क पर लगा हुआ चंदन भी अंगार के भांति जल रहा है तो भला मेरे लिए इससे बड़ा दण्ड और क्या हो सकता है। हे - राम जब मै अपने पुत्र भरत के लिए सम्पूर्ण राज्य मांग रही थी तब मैंने मोहरूपी नदी मे अपने बहुत हाथ पैर पटके। लोग ना जाने क्या - क्या नहीं करते, अपने अहंकार में, और अपने सपनों को साकार करने के लिए अर्थात वे सबकुछ करते है अपने सपनों को साकार करने के लिए। क्या मै अब भी दण्ड से डरुंगी अर्थात मै अपने कर्मो का दण्ड भुगतने से तनिक भी पीछे नहीं हटुंगी। अगर तुम मुझ पर दया भी करोगे तब भी मै नहीं डरुंगी।

संकेत -
हा दया! हन्त वह घृणा! ---------------- मुझसे न्यारे।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकेयी राम से कह रहीं है कि हे - राम मुझे न तुम्हारी दया चाहिए न घृणा चाहिए और न ही तुम्हारी करुणा चाहिए। क्योंकि आज मेरे लिए ये जाह्नवी(गंगा) भी आज वैतरणी(नरक की नदी) के समान लग रही है। मै जीवन भर नरक मे अपना जीवन यापन कर सकती हूँ परंतु स्वर्ग मेरे लिए दया के दण्ड से भी भारी है। मैंने जिस ह्दय के वश मे आकर तुम्हे वन भेजा भला उसी बज्र समान ह्दय को लेकर में कहा जाऊँ। हे - राम तुम भरत के ही खातिर अयोध्या वापस लौट चलो पुत्र। मै तो अपराधिन हूँ इससे ज्यादा और कहुंगी तो भला मेरी कौन सुनेगा। पुत्र राम मुझे भरत प्यारा है और मेरे भरत को तुम प्यारे हो इसीलिए जो मेरे भरत को प्यारा होता है वो मुझे दोगुना प्यारा होता है। तो  हे - राम मेरे दोगुना प्यारे पुत्र मुझ से दूर मत रहो अर्थात हमारे साथ अयोध्या वापस लौट चलो पुत्र।

संकेत -
मै इसे न जानू, ------------------------- भुजा भर भेटा।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकेयी राम से कह रहीं है कि हे - राम मै तो इसकी माता होते हुए भी इसे न जान सकीं परंतु तुम तो इसे भली-भांति जानते हो और इसे स्वंय से ज्यादा प्यार करते हो। तुम दोनों भाईयों का प्रेम तो पारस्परिक है और आज इस सभा मे वो प्रेम अगर सभी के सामने उजागर हुआ हो तो मेरे सारे पाप और दोष पुण्य के संतोष मे परिवर्तित हो जाए। मै भले ही आज कीचड़ से युक्त हूँ परंतु मेरा पुत्र भरत उस कीचड़ मे खिला हुआ कमल है बस मुझे इसी बात का संतोष है। यहाँ आये हुए सभी ज्ञानी लोग अपने तेज मस्तिष्क से तुम्हे उचित उपाय देकर समझाए। मेरे पास तो बस एक ह्दय ही है और वो भी व्याकुल। जिस ह्दय ने आज फिर तुम्हें वात्सलय के वश मे आकर अपनी भुजाओं मे भर लिया है।




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  कहानी - नारी महान है। बहुत समय पहले की बात है। चांदनीपुर नामक गांव में एक मोहिनी नाम की छोटी सी लड़की रहा करती थी। उसकी माता एक घर मे नौक...