शुक्रवार, 18 जून 2021

कहानी - नारी महान है।

 

कहानी - नारी महान है।


बहुत समय पहले की बात है। चांदनीपुर नामक गांव में एक मोहिनी नाम की छोटी सी लड़की रहा करती थी। उसकी माता एक घर मे नौकरानी और पिता मजदूर थे। मोहिनी के परिवार मे उसके माता - पिता और एक छोटा भाई पिंकू भी था। मोहिनी के माता - पिता अत्यंत गरीब होने के कारण केवल उसके भाई को विद्यालय भेजते थे, और मोहिनी घर पर अपनी मां का हाथ बँटाती थी। परंतु मोहिनी भी विद्यालय जाकर अपने भाई की तरह पढ़ना चाहती थी। मोहिनी घर का सारा काम समाप्त करने के बाद अपने भाई की किताबे लेकर पढ़ने लगती। धीरे-धीरे यहीं सिलसिला चलता रहा और मोहिनी थोड़ी सी बड़ी हुई। एक दिन मोहिनी ने बहुत साहस करके अपने पिता के पास जाकर पढ़ने की इच्छा प्रकट की, तब उसके पिता ने उसे मना करते हुए कहा कि - बेटा हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि हम तुम्हे विद्यालय भेज सके। मोहिनी यह बात सुनकर बहुत उदास हो गई लेकिन तभी उसके दिमाग मे एक उपाय आया और उसने अपने पिता से कहा कि वह भी बाहर का काम करेगी। परंतु यह उपाय उसके पिता को अच्छा नही लगा और उन्होनें यह कहकर मना कर दिया कि लड़कियों का बाहर जाकर काम करना सही बात नहीं है। मोहिनी ने अपने पिता को मनाने का बहुत प्रयास किया और अंत मे उसके पिता ने उसे बाहर जाकर काम करने की आज्ञा दे दी। मोहिनी को एक फैक्टरी मे अच्छा काम मिल गया और उसे उसके काम के अच्छे पैसे मिल जाते थे। मोहिनी ने अब विद्यालय मे दाखिला ले लिया था और वह काम करने के साथ - साथ अपनी पढाई भी मन लगाकर करती। समय के साथ मोहिनी अत्यंत  सुंदर और बुद्धिमान युवती बन चुकी थी। मोहिनी ने अपनी पढाई पूरी कर ली थी और अपने जमा किए हुए पैसो से उसने अपने माता-पिता के लिए एक छोटा सा सुंदर घर भी ले लिया था। अब मोहिनी कोई अच्छी सी नौकरी करके अपने माता पिता का नाम रौशन करना चाहती थी परंतु तभी उसके लिए पास के गांव से एक अच्छा रिश्ता आया और उसकी शादी हो गई। ससुराल मे उसके पति और परिवारवालों ने से नौकरी करने से सख्त मना कर दिया था, इसीलिए उसने खुद को घर के कामों मे पूरी तरह से व्यस्त कर लिया और अपने पति और परिवार का बहुत ही मन से ध्यान रखती। समय बीतता रहा और एक दिन अचानक सड़क दुर्घटना मे मोहिनी के पति मनोहर को काफी चोट लग गई और उसने बिस्तर पकड़ लिया। कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीक चल रहा था परंतु अब तो घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही थी। मोहिनी के ससुर जी की तबियत भी कुछ सही नहीं रहती थी जो वो ही कुछ मदद करते। एक दिन मोहिनी ने अपने ससुरालवालों के सामने काम करने की इच्छा प्रकट की, क्योंकि इसके अलावा दूसरा कोई और रास्ता भी तो नहीं था। मोहिनी के सास ससुर ने उसे बाहर जाकर काम करने की आज्ञा दे दी। मोहिनी अगले ही दिन सुबह जल्दी उठकर कोई अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ने के लिए निकल जाती है लेकिन उसे कोई भी नौकरी नहीं मिलती है। कुछ दिनों तक यहीं सिलसिला चलता रहता है। पर उसे कोई भी नौकरी नहीं मिलती। एक दिन उसे उसके स्कूल की एक सहेली रागिनी मिलती है, वह अपनी सहेली को अपनी सारी तकलीफ बताती है। रागिनी शादी के बाद शहर मे रहने लगी थी और अब उसे रोजगार के साधनों की अच्छी खासी जानकारी थी इसीलिए उसने मोहिनी को अपना एक बिजनेस शुरू करने की सलाह दी। पर मोहिनी उससे कहने लगी कि बिजनेस के लिए तो बहुत से पैसे चाहिए और उसके पास तो इतने पैसे नहीं है। तब रागिनी उससे कहती है कि तुम कपडे तो बहुत ही अच्छे सिलती हो और तुम कपडो की सिलाई का काम शुरू कर सकती हो। मोहिनी को रागिनी की ये सलाह पसंद आ जाती है और वह अब वह सुंदर सुंदर कपडे सिलती और उसके बदल मे उसे अच्छे खासे पैसे भी मिलते। सके घर की आर्थिक स्थिति अब पहले से भी अच्छी हो गई और मोहिनी का पति मनोहर भी ठीक हो गया था। मोहिनी के सुंदर कपडो की मांग अब शहर मे भी होने लगी थी। उसका बिजनेस दिन दुगनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहा था। मोहिनी के ससुरालवालों को अब ये समझ आ गया था कि लड़कियां भी पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है वो किसी से भी कम नहीं होती और अपनी मेहनत और कठिन परिश्रम के दम पर पुरुषों से आगे निकल सकती है। अब मोहिनी के पति और उसके सास- ससुर भी उसकी मदद करते थे।


शुक्रवार, 11 जून 2021

गीत ( महादेवी वर्मा ) कक्षा - 12


 

❄️ संकेत - चिर सजग आँखे ------------ ------------------ दूर जाना।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के गीत शीर्षक से लिया गया है इसकी कवयित्री महादेवी वर्मा जी है।

प्रसंग - महादेवी वर्मा जी ने अपने इस गीत के माध्यम से यह बताया है कि हमे अपने जीवन मे  अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए , चाहे जीवन मे कितने ही कष्ट ही क्यों न आ जाऐ। महादेवी वर्मा जी ने अपने इस गीत के माध्यम से अत्यंत ही प्रभावशाली और प्ररेणात्मक संदेश दिया है।

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी कहती है कि हे-मन  शदियों से जो आँखे जगी हुई थी, उन आँखों मे आज निद्रा क्यों भरी हुई है और आज तुम्हारी दशा इतनी अस्त - व्यस्त क्यों है। ऐ मेरे मन तू जाग। क्योंकि अभी तो तुझे बहुत दूर जाना है।तुम्हे तो अभी अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होना है। आज चाहे कठोर हिमालय के ह्दय भी कांप जाए और द्रवित हो उठे और चाहे आज मौन धारण किया हुआ आकाश भी रो - रोकर अपने आंसुओं से प्रलय मचा दे। या फिर अंधेरा आज प्रकाश को पीकर झूमने लगे। तू जाग मेरे मन, भले ही आज बिजली की तरंगो के साथ तूफान भी आ जाए। ऐ मेरे मन तुझे आज जागना ही होगा क्योंकि तुझे तो अभी नाश पथ अर्थात इस नश्वर संसार मे अपनी एक अलग पहचान बनानी है और इस संसार अपनी एक अलग पहचान बनानी है और इस संसार से जाने के पहले यहाँ अपने पद चिह्नों को छोड़कर जाना है, जो सदैव के लिए तुम्हारी याद के रूप मे इस संसार मे व्याप्त रहेंगे।

❄️ संकेत - बांध लेंगे --------------------
-------------- दूर जाना!

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन क्या तुझे ये मोमरूपी संसार के कोमल बंधन अपनी मोह-माया मे बांध लेंगे?
और तितलियों के सुंदर पंखरूपी संसार के रंग बिरंगे दृश्य तुम्हे लुभाकर तुम्हारे रास्ते की रुकावट बन जायेंगे? और क्या संसार की दुःखभरी चीख पुकार भंवरो की गुनगुनाहट को समाप्त कर देगी?, क्या फूलों की पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की बूंदें तुझे अपने भीतर डुबा कर समाप्त कर देंगी? ऐ मेरे मन तुम अपनी ही छाया को अपने लिए कारावास मत बना लेना जो तुम्हे जीवनभर बांध कर रखे और तुम्हारे लक्ष्यप्राप्ति के मार्ग मे बाधा बने। तुम्हे सिर्फ अपने लक्ष्य पर अपना ध्यान केंद्रित करना है क्योंकि तुम्हे तो अभी बहुत दूर जाना है और अपने लक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसर होना है।

❄️संकेत - बज्र का ----------------------
------------------- तुझको दूर जाना!

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन तुम्हारा ह्दय तो वज्र के समान कठोर है, तो क्या भला वो एक आंसू की बूंद से द्रवित हो सकता है अर्थात वह एक आंसू की बूंद से कभी भी द्रवित नहीं हो सकता है। हे- मेरे मन तुम जीवन सुधा रूपी अमृत को किसी और को देकर उसके बदले मे शराब के जहरीले और नशीले घूंट क्यों मांग लाए हो ? क्या तुम्हारी उत्साह और उमंग की आंधी चंदनरूपी शीतल हवाओं की तकिया लगाकर सो गई है और क्या सम्पूर्ण संसार का श्राप नींद का रूप लेकर तुम्हारे पास आ गया है जो तुम्हे अपने लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाने मे विघ्न उत्पन्न कर रहा है। क्या आज तुम्हारी अमर आत्मा मृत्यु को अपने ह्दय मे सदा-सदा के लिए बसा लेना चाहती है। हे-मन तू जाग इस चिर निद्रा से क्योंकि तुझे तो अभी बहुत दूर जाना है। अपने को लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कठिन परिश्रम करना है।

❄️ संकेत - कह न ठंडी -----------------
--------------- तुझको दूर जाना!

व्याख्या- महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन अब तुझे रो - रोकर आह भरते हुए ठंडी सांसो से सबको अपनी असफलता की कहानी नहीं सुनानी है। बल्कि लक्ष्यप्राप्ति हेतु दृढ़ संकल्प करके जीवन मे समय के साथ आगे बढ़ना है। अगर तेरे ह्दय मे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की आग होगी तो ही तेरी आँखो से निकलने वाले आंसुओं मे सफलता की चमक होगी और तुम्हारी हार और असफलताऐ ही एक दिन तुम्हारे लिए विजय पताका बन जाऐंगी। तुमने देखा होगा कि छोटे - छोटे कीट पतंगे दीपक की रोशनी मे जलकर राख हो जाते है और वही राख ही उन्हे अमरत्व की ओर ले जाती है, अर्थात अगर कोई व्यक्ति लक्ष्यप्राप्ति के मार्ग मे अपना जीवन भी त्याग देता है तो वह सदैव के लिए लोगों के बीच अमर हो जाता है तो उसका नाम जन्म-जन्मांतर के लिए लोगों को अपने गंतव्य की ओर निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहता है। तुझे तो अभी अपनी असफलताओं रूपी अंगारो की शय्या पर सफलताओं रूपी सुगंधित फूल और कलियां बिछानी है। हे - मन तू इस चिर निद्रा से जागकर  अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर क्योंकि तुझे अभी बहुत दूर जाना है।

❄️ संकेत - पंथ होने --------------------
---------------- संकल्प खेला!

व्याख्या- महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! यदि यात्री अपरिचित हो तो उसे अपरिचित ही रहने दो और अगर तुम्हारे प्राण अकेले है तो उन्हे अकेले ही रहने दो तुम सिर्फ अपनी लक्ष्य प्राप्ति की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करो। आज भले ही अमावस्या रूपी विघ्न और बाधाओं का काला अंधेरा तुम्हे घेर ले और तुम्हारी आँखो से काजल मिश्रित काले आंसू बाधाओं रूपी बादलों से रिमझिम - रिमझिम बरसने लगे , परंतु तुम्हें अपने साधना पथ पर लगातार बढ़ते जाना है। जिनकी पलकें रूखी हो और उनके तिल बुझ गए हो। ऐसे नेत्र ही सूखे होंगे क्योंकि मेरे नेत्र तो सूखे नहीं है। यहाँ तो गीली दृष्टि ने ही सैकडों बाधाओं के साथ खेल खेला है और अनेंको बिजलों की तरंगो के समान कष्टों को झेला हैं। वो पैर किसी अन्य के होंगे जो लक्ष्यप्राप्ति के पथ पर एक कांटा चुभने से वापस लौट जाते हैं। अपने सारे सपने और दृढ़ संकल्प उस एक कांटे के चुभने से उसको उसी स्थान पर छोड़कर वापस लौट आते है, परंतु तुझे अपने लक्ष्य को त्यागकर वापस नहीं लौटना है बल्कि उस कांटे को अपने रास्ते की चुनौती समझकर उसे पार करके आगे बढ़ते रहना है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।

❄️ संकेत - दुखव्रती निर्माण --------------
----------------- एक मेला!

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! मेरे चरणों मे दुःख सहने की ताकत है और बाधाओं रूपी कांटे मेरे संकल्प को तोड़ नहीं सकते क्योंकि मेरे चरण अमरता की दूरी नापते है और मेरे चरण संसार के अंत मे व्याप्त अंधेरे को बांध कर उस अंधेरे को प्रकाश मे बदलने का पूर्ण प्रयत्न करेंगे। अरे वो किसी और की कहानी होगी, मेरी नहीं। जिसके सारे शब्द शून्य अर्थात अंधकार मे कहीं खो गए है और धूल मे पद - चिह्न हवा के माध्यम से विलुप्त हो गए हो। आज प्रलय भी जिसके साहस को देखकर आश्चर्यचकित है, वो मै ही हूँ। मेरे ह्दय मे सुख के मोतियों की बाजार और उत्साह तथा उमंग रूपी चिंगारियों का मेला  लगा रहता है।

❄️संकेत - हास का मधु ------------------
--------------------- दो अकेला!

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! तुम भले आज प्रसन्नता का शहदरूपी दूत भेजो और मुझे लुभाने का प्रयास करो, या फिर मुझ पर क्रोधित होकर अपनी भौंहे तिरछी कर लो और तुम पतझड़ का मौसम सहेज लो अर्थात मुझसे घृणा करो परंतु मुझे तनिक भी फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि मेरा ये कोमल ह्दय प्रेम से भरा हुआ है, और उस विरहरूपी प्रेम के जल मे स्वप्नरूपी कमल खिले है। इसीलिए हे-ईश्वर मेरा अकेला मन विरह वृथा के समय भी यादों के सहारे खुश है अर्थात मै विरह वृथारूपी प्रेम के जल से आपके चरणों को धोकर उस पर अपने स्वप्नरूपी कमल अर्पित करुंगी।  हे-ईश्वर मेरे मन को अपरिचित और प्राणों को अकेला ही रहने दो।

❄️ संकेत - मै नीरभरी---------------------
--------------------- पराग झरा।

व्याख्या- महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! मै आंसुओं के जल से भरी हुई, दुखरूपी बादल का एक टुकड़ा हूँ। मेरे कंपित ह्दय मे आज सदा के लिए स्थिरता बस गई है।और मेरे रोने और विलाप करने पर ये सारी हंसती है। आज मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो मेरे नेत्रों मे आशा और एक नई उम्मीद के दीपक जल रहें हो और मेरी पलकों मे आंसुओं रूपी नदी मचल रही हो। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरे हर एक कदम मे संगीत के सुरीले स्वर व्याप्त हो। और मेरी हर एक सांस मे मेरे सारे सपने पराग बनकर झड़ रहे हो।

❄️ संकेत - नभ----------------------------
--------------------- मिट आज चली।

व्याख्या- महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! आज मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो ये आकाश अपने सभी नवीन रंगों से मेरे लिए अत्यंत ही सुंदर और रंगीला दुपट्टा बुन रहा हो, और मै मलय बनकर शीतल और स्वच्छ वायु की छाया में पलती हुई बड़ी हो रहीं हूँ। जिस प्रकार क्षितिज (जहां धरती और आकाश आपस मे मिलते हुए दिखाई देते हो)पर सदा के लिए धुएं की भांति बादल का एक टुकड़ा छाया रहता है उसी प्रकार मेरे मस्तिष्क मे भी हमेशा चिंता का भार बना ही रहता है। आज मुझे ऐसा लग रहा है कि मै धूल के कणों पर वर्षा के जलकण बनकर गिर रही हूँ। और धरती पर पड़े बीजों मे अंकुर के रूप मे नव जीवन लेकर फिर से एक नई उमंग और जिज्ञासा के साथ इस दुनिया मे प्रवेश कर रही
हूँ। फिर महादेवी जी अपने मन से कहती है कि जिस प्रकार आकाश मे व्याप्त बादल का टुकड़ा बरसने के बाद आकाश को और भी ज्यादा उज्जवल और स्वच्छ बना देता है और उसके बाद आकाश से उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार तुम अपने अस्तित्व को त्यागकर भी अपने लक्ष्य के पथ को मैला मत होने देना और सदा तुम्हारा हित चाहने वाले लोगों को बिना निराश किए हुए अपने लक्ष्यप्राप्ति के पथ पर निरंतर आगे बढ़ते जाना।
महादेवी जी अपने कहती है कि मेरा बस एकमात्र लक्ष्य यह है कि ये संसार मुझे याद करके हमेशा सुख की अनुभूति करे क्योंकि मै हमेशा इस संसार मे नहीं रह सकती क्योंकि इस संसार का कोई भी कोना मेरा नहीं है। जिस प्रकार बादल का एक टुकडा हमेशा आकाश मे नहीं रह सकता ठीक वैसे ही मै भी हमेशा इस संसार मे नहीं रह सकती। जो कल एक अंकुर के भांति इस संसार मे आई थी आज वहीं जर्जर वृक्ष के रूप मे इस संसार से जा रही है मेरा परिचय और इतिहास बस इतना ही है।

मंगलवार, 1 जून 2021

विनयपत्रिका (कक्षा - 11) व्याख्या सहित


 

संकेत - कबहुंक हौं ---------------------- भक्ति लहौंगो।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के विनयपत्रिका शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता तुलसीदास जी हैं।

प्रसंग- तुलसीदास अपने ईष्ट भगवान श्रीराम से आशीर्वाद मांगते हुए कह रहे है कि हे-प्रभु मुझे साधु संतो का स्वभाव ग्रहण करने का आशीर्वाद दो ताकि मै आपकी भक्ति के माध्यम से इस संसार रूपी भवसागर से पार हो सकूं।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि हे-प्रभु मुझे यह आशीर्वाद दो कि मै अपनी जीवन-शैली संतो के समान बना पाऊं। और मुझे पूर्ण विश्वास है मै श्रीराम की कृपा से संत स्वभाव ग्रहण कर लूंगा। हे-प्रभु मुझे जितना लाभ हो अर्थात मुझे जो कुछ भी मिले या मेरे पास जितना है मै उसी मे संतुष्ट रहूँ। उसके अलावा और कुछ भी ना चाहूँ अर्थात किसी से कोई भी आस ना रखूं। और मै बिना किसी स्वार्थ के अपने मन, क्रम और वचन से निरंतर सभी की मदद कर सकूँ। मै लोगों के कटु वचनों को सुनने के बाद भी क्रोध की अग्नि में न जलूँ। और मै अपने घमंड से रहित शीतल और शांत मन से किसी के भी गुण-दोषों का बखान न करूं। हे -प्रभु मै कब इस शरीर की चिंता से मुक्त होकर सुख दुःख को समान भाव से सह पाऊंगा। तुलसीदास जी कह रहें है कि हे परमपिता परमेश्वर मै कब इस संसार रूपी भावनाओं के महासागर से निकलकर अपने पथ से विचलित हुए बिना हरि भक्ति को ग्रहण करूंगा, और साधु संतो के स्वभाव और उनके आचरण को ग्रहण कर पाऊंगा।


संकेत - ऐसी मूढ़ता या ------------------- निज पन की।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि मेरा मन इतना मूर्ख है कि रामभक्ति रूपी गंगा नदी को छोड़कर विषय वासना रूपी ओस की कणों से अपनी प्यास बुझाना चाहता है। मेरा मन उसी प्रकार है जैसे चातक पक्षी आकाश मे उठते धुएं को बादल समझकर टकटकी लगाकर बस उसी को ही देखता रहता है। उस धुएं मे न तो पानी होता है और न ही उससे शीतलता प्रदान होती है बस सिर्फ और सिर्फ नेत्रों की ही हानि होती है। जैसे कांच मे बाज अपनी ही परछाई को देखकर उसे अपना शिकार समझ लेता है और भूख से व्याकुल होकर अपने शिकार को पकड़ने की चाहत में कांच को तोड़ने के चक्कर मे अपनी चोंच को ही घायल कर लेता है। ठीक वैसी मनोव्यथा मेरी है। हे - कृपानिधान परमपिता परमेश्वर आप तो मेरे मन की स्थिति जानते है मै कहां तक आपको अपने मन की व्यथा कहूँ। तुलसीदास जी कहते है कि हे - प्रभु आप मेरे असहनीय दुःख का हरण करके अपने भक्त की लाज रख लिजिए।


संकेत - हे हरि! -------------------------- कबहूँ  न पावै।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि हे-हरि ! आप कष्ट हरण करने वाले के रूप मे प्रसिध्द है तो फिर आप अभी तक आपने मेरे भ्रम का हरण क्यों नहीं किया। मै जानता हूँ कि ये संसार असत्य और मिथ्या है। हे-हरि ! जब तक तुम्हारी कृपा नहीं होती , ये झूठ रूपी संसार भी सत्य प्रतीत होता है। मेरी स्थिति उस तोते की भांति है जिसने डाल को पकड़कर रखा है, परंतु तोते को लगता है कि डाल ने उसे पकड़ रखा है। मै उसी तोते के समान ही मूर्ख हो गया है। जब तक आप के ज्ञान की रोशनी नहीं मिलती तब तक हमें लगता है कि संसार ने हमे अपनी मोह-माया मे  लपेट रखा है परंतु सच तो यह है कि हम संसार की मोह-माया  मे लिपटे होते है। एक बार मैने ये सपना देखा कि मुझे बहुत से रोगों और बाधाओं ने घेर लिया है, और मृत्यु मुझे अपने साथ ले जाने के लिए उपस्थित हो गई है। वैद अनेकों प्रकार के उपचार कर रहे है, परंतु सबकुछ असफल है। पर अचानक नींद से उठने के बाद मुझे यह आभास हुआ कि यह सबकुछ तो एक भयावह सपना था और मै पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ। इस सपने के बाद मुझे यह आभास हुआ कि ये संसार एक स्वप्न के भांति है। जो सिर्फ हमें दुःखो का दर्द ही देता है। परंतु ईश्वर रूपी ज्ञानसागर प्राप्त करने के बाद हम इस संसार की मोह-माया रूपी नींद से जाग जाते है और अपार सुख और शांति की अनुभूति करते हैं। वेद, पुराण, स्मृतिग्रंथ, गुरू एंव साधुओं का सत्य कथन है कि ये संसार दुःखों का सागर है इस संसार को छोड़कर श्रीराम की कृपा के बिना कोई भी विपत्ति टल नहीं सकती। इस संसाररूपी भव सागर से पार उतरने अनेको साधन हैं। ग्रंथो पुराणों मे महान संतो और साधुओं ने अपने-अपने तरीके बताए है परंतु तुलसीदास जी कहते है कि अहंकार का भावना का त्याग किऐ बिना रामभक्ति महासागर मे डुबकी लगाने का सुख प्राप्त नहीं होगा।


संकेत - अब लौं नसानी ------------------ कमल बसैहौं।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि मैने संसार की मोह-माया मे फंसकर अपना बहुत जीवन व्यर्थ किया है परंतु अब और नहीं। अब मेरी जितनी भी आयु शेष बची है उसमे मै सिर्फ अपने जीवन का सदुपयोग करुंगा। ये संसार एक अज्ञानता रूपी रात के समान है। और मै इसी रात के अंधेरे मे खोया हुआ था। लेकिन श्रीराम की कृपा से मै अज्ञानता रूपी रात के अंधेरे से बहार निकलकर अज्ञानरूपी नींद से जाग चुका हूँ। और मै इस रात को दोबारा से स्वंय को डसने नहीं दूंगा। मुझे तो अब रामरूपी अनमोल चिंतामणि मिल गई है और अब मैं इसे अपने हाथों से खिसकने नहीं दूंगा। मै अपने प्रभु श्रीराम के सुंदर और सांवले शरीर को पवित्र कसौटी बनाकर उस पर मै अपने कंचनरूपी (सोनेरूपी) शरीर को कसुंगा। तुलसीदास जी कहते है कि मुझे अपने बस मे करके अब तक ये इंद्रियाँ मुझ पर खूब हंसी और मेरा मजाक उड़ाया, परंतु मैने अब इन इंद्रियों को अपने बस मे कर लिया है और मै इन्हे अपने ऊपर हंसने का मौका नहीं दूंगा। मै आज से संकल्प लेता हूँ। कि मै अपने मन को भँवरा बनाकर श्रीराम के चरणकमलों मे वास करुंगा।

कहानी - नारी महान है।

  कहानी - नारी महान है। बहुत समय पहले की बात है। चांदनीपुर नामक गांव में एक मोहिनी नाम की छोटी सी लड़की रहा करती थी। उसकी माता एक घर मे नौक...