शान्त, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्जवल !
अपलक अनंत नीरव भूतल !
सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल,
लेटी हैं शान्त, क्लान्त, निश्चल !
तापस बाला गंगा निर्मल, शशिमुख से दीपित मृदु करतल ,
लहरें उर पर कोमल कुन्तल !
गोरे अंगो पर सिहर - सिहर लहराता तार - तरल सुन्दर चंचल अंचल सा नीलाम्बर !
साड़ी सी सिकुड़न सी जिस पर, शशि की रेशमी विभा से भर
सिमटी है वर्तल मृदुल लहर !
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के नौका विहार शीर्षक से लिया गया है इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत जी हैं।
प्रसंग - सुमित्रानंदन पंत जी ने नौका विहार पाठ के माध्यम से प्रकृति का मानवीकरण कर अत्यंत ही कल्पनात्मक ढंग से बहुत ही सुंदर शब्दों मे जीवन की गहराई के बारे मे बताया है।
व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि आज बड़ा ही शांतिपूर्ण माहौल है और इस शांतिपूर्ण माहौल मे सम्पूर्ण पृथ्वी पर दूध जैसी चिकनी चांदनी परत बिछी हुई है। आकाश को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो जैसी की वह अपनी प्रिया धरती को बड़े ही प्रेम से निहार रहा हो। इस दूध जैसी चांदनी रात में स्त्रीरूपी दुबली पतली सी गंगा ( नदी )दिनभर की कड़ी गर्मी से व्याकुल होकर दूध की तरह सफेद और चांदनी रात मे चमक रही बालू की शय्या अर्थात बिस्तर पर थक हारकर शांत, परेशान और गंभीर होकर लेटी हुई है। ऐसी अत्यंत सुंदर और मनमोहिनी चांदनी रात मे किसी तपस्विनी की भांति निर्मल गंगा की सुकोमल हथेली चंद्र के मुख की तरह प्रकाशित हो रही थी और गंगा नदी मे उत्पन्न लहरों को कवि ने अपनी कल्पना की कलम से उन्हें उस लेटी हुई तपस्विनी के सुंदर , कोमल और रेशमी बालो की तरह बताया है। उस मनमोहिनी चांदनी रात मे चांद तारों से युक्त गंगा नदी मे पड़ रही नीले आकाश की परछाई को देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जैसे की वह चांद तारों से युक्त आकाश उस तपस्विनी (गंगा नदी) का लहराता हुआ सुंदर सा आंचल हो। जो उस तपस्विनी (गंगा नदी) के गोरे अंगो पर लहरा रहा हो और वह तपस्विनी उस आकाशरूपी आंचल को ओढ़कर शांति से लेटी हुई हो। चंद्रमा की चांदनी से जगमगाती हुई उस तपस्विनी रूपी गंगा नदी मे उत्पन्न गोलाकार लहरें आज सिमटी हुई है और उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे की उनमे साड़ी की तरह सिकुड़न पड़ी हो।
चांदनी रात का प्रथम प्रहर ,
हम चले नाव लेकर सत्वर ।
सिकता की सस्मित सीपी पर मोती की ज्योत्सना रही विचर लो पाले चढ़ी उठा लंगर !
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लंघु तरणि, हंसिनी-सी सुंदर तिर रही खोल पालों के पर !
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर दुहरे ऊंचे लगते क्षण भर !
कालाकांकर का राजभवन सोया जल में निश्चिंत प्रमन पलकों पर वैभव - स्वप्न सघन !
व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि चांदनी रात का प्रथम प्रहर था और हम सभी नाव मे बैठने के लिए शीघ्रता से उसकी ओर चल पड़े। उस चांदनी रात मे गंगा के किनारे अर्थात घाट की बालू ऐसे चमक रही थी मानो सीपी मे पड़ा मोती चमक रहा हो। हम सभी अपनी नाव मे बैठ गए और अपनी-अपनी पतवार (नाव चलाने का साधन) उठा ली।
गंगा नदी मे धीरे - धीरे मंद गति मे चल रही हमारी छोटी सी नाव किसी हंसिनी की भांति अत्यंत सुंदर लग रही थी और उस नाव को चलाने वाली पतवार को देखकर ऐसा लग रहा था मानो जैसी की वे पतवार उस हंसिनी के दो सुंदर - सुंदर से पंख हो। गंगा के किनारे पड़ी श्वेत चांदी सी चमकती हुई बालू की परछाई को गंगा नदी मे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो जैसे कि उस निश्चल जल के पवित्र दर्पण अर्थात शीशे मे गंगा के घाट और भी ऊंचे दिख रहें हो।
और कालाकांकर का राजभवन भी बिना किसी चिंता के निश्चिन्त होकर सो गया हो और अपनी पलकों पर वैभव और ऐश्वर्य के सुंदर सपने सजाये हो।
नौका से उठती जल - हिलोर ,
हिल पड़ते नभ के ओर छोर !
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक दल ज्योतित कर जल का अंतस्तल ,
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओर किए अविरल फिरतीं लहरें लुक - छिप पल - पल !
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी सी जल में कल
रूपहरें कपों मे हो ओझल !
लहरों के घूंघट मे झुक झुक दशमी का शशि निज निर्यक मुख दिखलाता मुग्धा सा रुक - रुक।
व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि जब हमारी नाव चल रही थी तो उसके आस पास जल की छोटी - छोटी हिलोरे उठ रही थी। उन जल की हिलोरों को देखकर ऐसा लग रहा था मानो जल के हिलने के साथ-साथ आकाश का ओर छोर भी हिल रहा हो, और उस आकाश मे विद्यमान सभी तारें बड़ी ही उत्सुकता से कोई वस्तु या किसी चीज को खोज रहें हो। गंगा मे पड़ती हुई आकाश की परछाई को देखकर ऐसा लगता है मानो आकाश के सभी तारें गंगा के अंतस्तल को प्रकाशित कर रहे हो। गंगा की लहरें अपने आंचल की ओट मे तारों को छिपाए हुई थी जिन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी रमणीय स्त्री ने अपने आंचल से दीपों का समूह छुपा रखा हो। कवि कहते है कि सामने गंगा मे शुक्र तारे की पड़ती हुई छवि को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जैसे की कोई सुंदर परी जल मे तैर रही हो और उसके सुंदर रेशमी बाल बार-बार उसकी छवि को अपने भीतर छुपा ले रहे हो। उस जल मे दशमी के चांद की पड़ती हुई छवि लहरों के साथ हिलती हुई ऐसा आभास करा रही थी मानो कि चंद्रमा लहररूपी घूंघट से लज्जापूर्वक झांक रहा हो ठीक वैसे ही जैसे कोई मुग्धा स्त्री (नयी नवेली दुल्हन) लज्जा की अधिकता के कारण अपने घूंघट से अपने मुहं को छिपा लेती है और कभी-कभी तिरछे मुहं से एक हलकी सी झलक दिखा देती है।
जब पहुँची चपला बीच धार ,
छिप गया चांदनी का कगार !
दो बाहों से दूरस्थ तीर धारा का कृश कोमल शरीर आलिंगन करने को अधीर !
अति दूर, क्षितिज पर विटप माल लगती भू रेखा सी अराल,
अपलक नभ नील नयन विशाल ;
मां के उर पर शिशु सा समीप , सोया धारा में एक द्वीप ,
उर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग ? क्या विकल कोक उड़ता हरने निज विरह शोक ?
छाया की कोकी को विलोक !
व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि जब हमारी छोटी सी नाव गंगा के बीच मे पहुंची तो चांदनी रात मे चांदी की तरह चमकते हुए नदी के किनारे जैसे कहीं छिप से गए हो और धारा रूपी कमजोर और सुकोमल स्त्री किनारों रूपी पुरूष को अपने गले से लगाने को आतुर हो रही हों। कवि कहते है बहुत दुर से देखने पर ऐसा लग रहा था जैसे कि क्षितिज (जहां धरती और आकाश दोनों मिलते हुए दिखाई देते हो) पर वृक्षों की मालाऐं (नदी के किनारें लगे हुए पेड़) भू - रेखा सी प्रतीत हो रही थी और उस भू - रेखा को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि वे आकाश के विशाल नीले नेत्र हो। लहरों के प्रवाह को विपरीत दिशा मे मोड़ते हुए धारा के बीच मे एक द्विप ऐसे सोया हुआ था जैसे कोई बालक अपनी माता के ह्दय पर लेटकर विश्राम कर रहा हो। तभी वहाँ एक चकवा पक्षी जल मे अपनी परछाई को देखता है और उसे चकवी समझ लेता है और फिर जल के पास जाकर अपने पंख फड़फड़ाने लगता है ये देखकर कवि कहते है कि अरे! वो कौन सा पक्षी है ? क्या वह चकवा पक्षी है? जो अपनी प्रिये चकवी से बिछड़ने के वियोग मे व्याकुल हो रहा है और अपनी ही छवि को जल मे देखकर चकवी समझकर अत्यंत व्याकुल है।
पतवार घुमा, अब प्रतुन भार,
नौका घूमी विपरीत धार ।
डांडो के चल करतल पसार , भर-भर मुक्ताहल फेन स्फार बिखराती जल मे तार-हार !
चांदी के सांपो सी रलमल चाचती रश्मियाँ जल में चल रेखाओं सी खिच तरल - सरल !
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ - सौ राशि , सौ - सौ उडु झिलमिल
फैले - फूले जल में फेनिल ;
अब उथला सरिता का प्रवाह , लग्गी से ले-ले सहज थाह ।
हम बढ़े घाट को सहोत्साह !
व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि अब हमने पतवार की सहायता से अपनी हलकी और छोटी सी नाव को घुमा लिया और हमारी नौका धारा की विपरीत दिशा मे मुड़ गई। हमारी छोटी सी नाव जल मे तारों के हार रुपी रोशनी को बिखेरती हुई जल मे मोतीरूपी बुलबुलों को जल मे उत्पन्न करके डंडे रूपी हथेलियों को फैलाकर चल पड़ी। गंगा की लहरें चांदनी रात में ऐसे चमक रही थी मानो चांदी की सांप रूपी किरणें मस्ती मे लहराती हुई नाच रहीं हो। कवि कहते है कि गंगा के जल मे पड़ने वाले पानी के बुलबुलो मे फल फूलकर लहररूपी लताओं मे खिलकर सैकडों चंद्रमा और तारें झिलमिला रहे हो। इतनी देर बाद जब हम नदी के थोड़ा किनारे पर पहुंचे तो हमने बड़ी ही सहजता से एक डंडे की मदद से नदी की गहराई को नापा और फिर बड़ी ही उत्सुकता से घाट की ओर बढ़ चले।
ज्यों-ज्यों लगती नाव पार,
डर में आलोकित शत विचार ।
इस धारा सी जग का क्रम , शाश्वत इस जीवन का उद्गम , शाश्वत है गति , शाश्वत शशि का यह रजत हास, शाश्वत लघु लहरों का विलास !
हे - जग जीवन के कर्णधार ! चिर जन्म - मरण के आर - पार शाश्वत जीवन नौका विहार
मै भूल गया अस्तित्व ज्ञान , जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
करता मुझको अमरत्व दान।
व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी जीवन के सत्य को बताते हुए कहते है कि हमारी जीवनरुपी नाव जितना ही पार होती जाती है हमारे ह्दय मे उतने ही सैकडों विचार उत्पन्न होते रहते है। शायद इस धारा की भांति ही इस संसार का क्रम चलता है। जैसे इस गंगा की धारा का उद्गम हिमालय से हुआ है ठीक वैसे ही इस जीवन का उद्गम ईश्वर के अंश से हुआ है। जैसे इस धारा की गति शाश्वत (कभी ना समाप्त होने वाला) है। ठीक वैसे ही इस जीवन की गति भी शाश्वत है। क्योंकि जैसे धारा का प्रवाह कभी नहीं रुकता वैसे ही जीवनरूपी समय भी लगातार चलता रहता है। जिस प्रकार इस गंगा की धारा को एक दिन संगम (सागर) मे मिलना है उसी प्रकार ही इस जीवन को भी एक ना एक दिन सागर रूपी ईश्वर मे मिलना है। कविवर पंत जी कहते है कि ये नीलगगन और ये चंद्रमा की श्वेत चांदी सी चमकती हुई मुस्कान ये सबकुछ शाश्वत है। और शाश्वत है ये छोटी सी लहरों का विलास। हे- ईश्वर सबको जीवन देने वाले जीवनदाता तुम जीवन-मरण के चक्रव्यूह से बाहर हो और ये आपकी जीवनरूपी नौका भी शाश्वत है। हे- ईश्वर मै कुछ समय के लिए अपने अस्तित्व के अपार ज्ञान को भूल गया था मै ये भूल गया था कि ये जीवन शाश्वत है परंतु इस नौका-विहार के माध्यम से अपने अस्तित्व के ज्ञान को फिर से जान चुका हूँ। अब मेरे मन से मृत्यु का भय सदा के लिए समाप्त हो गया है और मुझे अमरता का वरदान प्राप्त हो गया है।