शुक्रवार, 18 जून 2021

कहानी - नारी महान है।

 

कहानी - नारी महान है।


बहुत समय पहले की बात है। चांदनीपुर नामक गांव में एक मोहिनी नाम की छोटी सी लड़की रहा करती थी। उसकी माता एक घर मे नौकरानी और पिता मजदूर थे। मोहिनी के परिवार मे उसके माता - पिता और एक छोटा भाई पिंकू भी था। मोहिनी के माता - पिता अत्यंत गरीब होने के कारण केवल उसके भाई को विद्यालय भेजते थे, और मोहिनी घर पर अपनी मां का हाथ बँटाती थी। परंतु मोहिनी भी विद्यालय जाकर अपने भाई की तरह पढ़ना चाहती थी। मोहिनी घर का सारा काम समाप्त करने के बाद अपने भाई की किताबे लेकर पढ़ने लगती। धीरे-धीरे यहीं सिलसिला चलता रहा और मोहिनी थोड़ी सी बड़ी हुई। एक दिन मोहिनी ने बहुत साहस करके अपने पिता के पास जाकर पढ़ने की इच्छा प्रकट की, तब उसके पिता ने उसे मना करते हुए कहा कि - बेटा हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि हम तुम्हे विद्यालय भेज सके। मोहिनी यह बात सुनकर बहुत उदास हो गई लेकिन तभी उसके दिमाग मे एक उपाय आया और उसने अपने पिता से कहा कि वह भी बाहर का काम करेगी। परंतु यह उपाय उसके पिता को अच्छा नही लगा और उन्होनें यह कहकर मना कर दिया कि लड़कियों का बाहर जाकर काम करना सही बात नहीं है। मोहिनी ने अपने पिता को मनाने का बहुत प्रयास किया और अंत मे उसके पिता ने उसे बाहर जाकर काम करने की आज्ञा दे दी। मोहिनी को एक फैक्टरी मे अच्छा काम मिल गया और उसे उसके काम के अच्छे पैसे मिल जाते थे। मोहिनी ने अब विद्यालय मे दाखिला ले लिया था और वह काम करने के साथ - साथ अपनी पढाई भी मन लगाकर करती। समय के साथ मोहिनी अत्यंत  सुंदर और बुद्धिमान युवती बन चुकी थी। मोहिनी ने अपनी पढाई पूरी कर ली थी और अपने जमा किए हुए पैसो से उसने अपने माता-पिता के लिए एक छोटा सा सुंदर घर भी ले लिया था। अब मोहिनी कोई अच्छी सी नौकरी करके अपने माता पिता का नाम रौशन करना चाहती थी परंतु तभी उसके लिए पास के गांव से एक अच्छा रिश्ता आया और उसकी शादी हो गई। ससुराल मे उसके पति और परिवारवालों ने से नौकरी करने से सख्त मना कर दिया था, इसीलिए उसने खुद को घर के कामों मे पूरी तरह से व्यस्त कर लिया और अपने पति और परिवार का बहुत ही मन से ध्यान रखती। समय बीतता रहा और एक दिन अचानक सड़क दुर्घटना मे मोहिनी के पति मनोहर को काफी चोट लग गई और उसने बिस्तर पकड़ लिया। कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीक चल रहा था परंतु अब तो घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही थी। मोहिनी के ससुर जी की तबियत भी कुछ सही नहीं रहती थी जो वो ही कुछ मदद करते। एक दिन मोहिनी ने अपने ससुरालवालों के सामने काम करने की इच्छा प्रकट की, क्योंकि इसके अलावा दूसरा कोई और रास्ता भी तो नहीं था। मोहिनी के सास ससुर ने उसे बाहर जाकर काम करने की आज्ञा दे दी। मोहिनी अगले ही दिन सुबह जल्दी उठकर कोई अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ने के लिए निकल जाती है लेकिन उसे कोई भी नौकरी नहीं मिलती है। कुछ दिनों तक यहीं सिलसिला चलता रहता है। पर उसे कोई भी नौकरी नहीं मिलती। एक दिन उसे उसके स्कूल की एक सहेली रागिनी मिलती है, वह अपनी सहेली को अपनी सारी तकलीफ बताती है। रागिनी शादी के बाद शहर मे रहने लगी थी और अब उसे रोजगार के साधनों की अच्छी खासी जानकारी थी इसीलिए उसने मोहिनी को अपना एक बिजनेस शुरू करने की सलाह दी। पर मोहिनी उससे कहने लगी कि बिजनेस के लिए तो बहुत से पैसे चाहिए और उसके पास तो इतने पैसे नहीं है। तब रागिनी उससे कहती है कि तुम कपडे तो बहुत ही अच्छे सिलती हो और तुम कपडो की सिलाई का काम शुरू कर सकती हो। मोहिनी को रागिनी की ये सलाह पसंद आ जाती है और वह अब वह सुंदर सुंदर कपडे सिलती और उसके बदल मे उसे अच्छे खासे पैसे भी मिलते। सके घर की आर्थिक स्थिति अब पहले से भी अच्छी हो गई और मोहिनी का पति मनोहर भी ठीक हो गया था। मोहिनी के सुंदर कपडो की मांग अब शहर मे भी होने लगी थी। उसका बिजनेस दिन दुगनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहा था। मोहिनी के ससुरालवालों को अब ये समझ आ गया था कि लड़कियां भी पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है वो किसी से भी कम नहीं होती और अपनी मेहनत और कठिन परिश्रम के दम पर पुरुषों से आगे निकल सकती है। अब मोहिनी के पति और उसके सास- ससुर भी उसकी मदद करते थे।


शुक्रवार, 11 जून 2021

गीत ( महादेवी वर्मा ) कक्षा - 12


 

❄️ संकेत - चिर सजग आँखे ------------ ------------------ दूर जाना।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के गीत शीर्षक से लिया गया है इसकी कवयित्री महादेवी वर्मा जी है।

प्रसंग - महादेवी वर्मा जी ने अपने इस गीत के माध्यम से यह बताया है कि हमे अपने जीवन मे  अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए , चाहे जीवन मे कितने ही कष्ट ही क्यों न आ जाऐ। महादेवी वर्मा जी ने अपने इस गीत के माध्यम से अत्यंत ही प्रभावशाली और प्ररेणात्मक संदेश दिया है।

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी कहती है कि हे-मन  शदियों से जो आँखे जगी हुई थी, उन आँखों मे आज निद्रा क्यों भरी हुई है और आज तुम्हारी दशा इतनी अस्त - व्यस्त क्यों है। ऐ मेरे मन तू जाग। क्योंकि अभी तो तुझे बहुत दूर जाना है।तुम्हे तो अभी अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होना है। आज चाहे कठोर हिमालय के ह्दय भी कांप जाए और द्रवित हो उठे और चाहे आज मौन धारण किया हुआ आकाश भी रो - रोकर अपने आंसुओं से प्रलय मचा दे। या फिर अंधेरा आज प्रकाश को पीकर झूमने लगे। तू जाग मेरे मन, भले ही आज बिजली की तरंगो के साथ तूफान भी आ जाए। ऐ मेरे मन तुझे आज जागना ही होगा क्योंकि तुझे तो अभी नाश पथ अर्थात इस नश्वर संसार मे अपनी एक अलग पहचान बनानी है और इस संसार अपनी एक अलग पहचान बनानी है और इस संसार से जाने के पहले यहाँ अपने पद चिह्नों को छोड़कर जाना है, जो सदैव के लिए तुम्हारी याद के रूप मे इस संसार मे व्याप्त रहेंगे।

❄️ संकेत - बांध लेंगे --------------------
-------------- दूर जाना!

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन क्या तुझे ये मोमरूपी संसार के कोमल बंधन अपनी मोह-माया मे बांध लेंगे?
और तितलियों के सुंदर पंखरूपी संसार के रंग बिरंगे दृश्य तुम्हे लुभाकर तुम्हारे रास्ते की रुकावट बन जायेंगे? और क्या संसार की दुःखभरी चीख पुकार भंवरो की गुनगुनाहट को समाप्त कर देगी?, क्या फूलों की पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की बूंदें तुझे अपने भीतर डुबा कर समाप्त कर देंगी? ऐ मेरे मन तुम अपनी ही छाया को अपने लिए कारावास मत बना लेना जो तुम्हे जीवनभर बांध कर रखे और तुम्हारे लक्ष्यप्राप्ति के मार्ग मे बाधा बने। तुम्हे सिर्फ अपने लक्ष्य पर अपना ध्यान केंद्रित करना है क्योंकि तुम्हे तो अभी बहुत दूर जाना है और अपने लक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसर होना है।

❄️संकेत - बज्र का ----------------------
------------------- तुझको दूर जाना!

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन तुम्हारा ह्दय तो वज्र के समान कठोर है, तो क्या भला वो एक आंसू की बूंद से द्रवित हो सकता है अर्थात वह एक आंसू की बूंद से कभी भी द्रवित नहीं हो सकता है। हे- मेरे मन तुम जीवन सुधा रूपी अमृत को किसी और को देकर उसके बदले मे शराब के जहरीले और नशीले घूंट क्यों मांग लाए हो ? क्या तुम्हारी उत्साह और उमंग की आंधी चंदनरूपी शीतल हवाओं की तकिया लगाकर सो गई है और क्या सम्पूर्ण संसार का श्राप नींद का रूप लेकर तुम्हारे पास आ गया है जो तुम्हे अपने लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाने मे विघ्न उत्पन्न कर रहा है। क्या आज तुम्हारी अमर आत्मा मृत्यु को अपने ह्दय मे सदा-सदा के लिए बसा लेना चाहती है। हे-मन तू जाग इस चिर निद्रा से क्योंकि तुझे तो अभी बहुत दूर जाना है। अपने को लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कठिन परिश्रम करना है।

❄️ संकेत - कह न ठंडी -----------------
--------------- तुझको दूर जाना!

व्याख्या- महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन अब तुझे रो - रोकर आह भरते हुए ठंडी सांसो से सबको अपनी असफलता की कहानी नहीं सुनानी है। बल्कि लक्ष्यप्राप्ति हेतु दृढ़ संकल्प करके जीवन मे समय के साथ आगे बढ़ना है। अगर तेरे ह्दय मे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की आग होगी तो ही तेरी आँखो से निकलने वाले आंसुओं मे सफलता की चमक होगी और तुम्हारी हार और असफलताऐ ही एक दिन तुम्हारे लिए विजय पताका बन जाऐंगी। तुमने देखा होगा कि छोटे - छोटे कीट पतंगे दीपक की रोशनी मे जलकर राख हो जाते है और वही राख ही उन्हे अमरत्व की ओर ले जाती है, अर्थात अगर कोई व्यक्ति लक्ष्यप्राप्ति के मार्ग मे अपना जीवन भी त्याग देता है तो वह सदैव के लिए लोगों के बीच अमर हो जाता है तो उसका नाम जन्म-जन्मांतर के लिए लोगों को अपने गंतव्य की ओर निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहता है। तुझे तो अभी अपनी असफलताओं रूपी अंगारो की शय्या पर सफलताओं रूपी सुगंधित फूल और कलियां बिछानी है। हे - मन तू इस चिर निद्रा से जागकर  अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर क्योंकि तुझे अभी बहुत दूर जाना है।

❄️ संकेत - पंथ होने --------------------
---------------- संकल्प खेला!

व्याख्या- महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! यदि यात्री अपरिचित हो तो उसे अपरिचित ही रहने दो और अगर तुम्हारे प्राण अकेले है तो उन्हे अकेले ही रहने दो तुम सिर्फ अपनी लक्ष्य प्राप्ति की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करो। आज भले ही अमावस्या रूपी विघ्न और बाधाओं का काला अंधेरा तुम्हे घेर ले और तुम्हारी आँखो से काजल मिश्रित काले आंसू बाधाओं रूपी बादलों से रिमझिम - रिमझिम बरसने लगे , परंतु तुम्हें अपने साधना पथ पर लगातार बढ़ते जाना है। जिनकी पलकें रूखी हो और उनके तिल बुझ गए हो। ऐसे नेत्र ही सूखे होंगे क्योंकि मेरे नेत्र तो सूखे नहीं है। यहाँ तो गीली दृष्टि ने ही सैकडों बाधाओं के साथ खेल खेला है और अनेंको बिजलों की तरंगो के समान कष्टों को झेला हैं। वो पैर किसी अन्य के होंगे जो लक्ष्यप्राप्ति के पथ पर एक कांटा चुभने से वापस लौट जाते हैं। अपने सारे सपने और दृढ़ संकल्प उस एक कांटे के चुभने से उसको उसी स्थान पर छोड़कर वापस लौट आते है, परंतु तुझे अपने लक्ष्य को त्यागकर वापस नहीं लौटना है बल्कि उस कांटे को अपने रास्ते की चुनौती समझकर उसे पार करके आगे बढ़ते रहना है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।

❄️ संकेत - दुखव्रती निर्माण --------------
----------------- एक मेला!

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! मेरे चरणों मे दुःख सहने की ताकत है और बाधाओं रूपी कांटे मेरे संकल्प को तोड़ नहीं सकते क्योंकि मेरे चरण अमरता की दूरी नापते है और मेरे चरण संसार के अंत मे व्याप्त अंधेरे को बांध कर उस अंधेरे को प्रकाश मे बदलने का पूर्ण प्रयत्न करेंगे। अरे वो किसी और की कहानी होगी, मेरी नहीं। जिसके सारे शब्द शून्य अर्थात अंधकार मे कहीं खो गए है और धूल मे पद - चिह्न हवा के माध्यम से विलुप्त हो गए हो। आज प्रलय भी जिसके साहस को देखकर आश्चर्यचकित है, वो मै ही हूँ। मेरे ह्दय मे सुख के मोतियों की बाजार और उत्साह तथा उमंग रूपी चिंगारियों का मेला  लगा रहता है।

❄️संकेत - हास का मधु ------------------
--------------------- दो अकेला!

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! तुम भले आज प्रसन्नता का शहदरूपी दूत भेजो और मुझे लुभाने का प्रयास करो, या फिर मुझ पर क्रोधित होकर अपनी भौंहे तिरछी कर लो और तुम पतझड़ का मौसम सहेज लो अर्थात मुझसे घृणा करो परंतु मुझे तनिक भी फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि मेरा ये कोमल ह्दय प्रेम से भरा हुआ है, और उस विरहरूपी प्रेम के जल मे स्वप्नरूपी कमल खिले है। इसीलिए हे-ईश्वर मेरा अकेला मन विरह वृथा के समय भी यादों के सहारे खुश है अर्थात मै विरह वृथारूपी प्रेम के जल से आपके चरणों को धोकर उस पर अपने स्वप्नरूपी कमल अर्पित करुंगी।  हे-ईश्वर मेरे मन को अपरिचित और प्राणों को अकेला ही रहने दो।

❄️ संकेत - मै नीरभरी---------------------
--------------------- पराग झरा।

व्याख्या- महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! मै आंसुओं के जल से भरी हुई, दुखरूपी बादल का एक टुकड़ा हूँ। मेरे कंपित ह्दय मे आज सदा के लिए स्थिरता बस गई है।और मेरे रोने और विलाप करने पर ये सारी हंसती है। आज मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो मेरे नेत्रों मे आशा और एक नई उम्मीद के दीपक जल रहें हो और मेरी पलकों मे आंसुओं रूपी नदी मचल रही हो। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरे हर एक कदम मे संगीत के सुरीले स्वर व्याप्त हो। और मेरी हर एक सांस मे मेरे सारे सपने पराग बनकर झड़ रहे हो।

❄️ संकेत - नभ----------------------------
--------------------- मिट आज चली।

व्याख्या- महादेवी वर्मा जी अपने मन से कहती है कि हे मन! आज मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो ये आकाश अपने सभी नवीन रंगों से मेरे लिए अत्यंत ही सुंदर और रंगीला दुपट्टा बुन रहा हो, और मै मलय बनकर शीतल और स्वच्छ वायु की छाया में पलती हुई बड़ी हो रहीं हूँ। जिस प्रकार क्षितिज (जहां धरती और आकाश आपस मे मिलते हुए दिखाई देते हो)पर सदा के लिए धुएं की भांति बादल का एक टुकड़ा छाया रहता है उसी प्रकार मेरे मस्तिष्क मे भी हमेशा चिंता का भार बना ही रहता है। आज मुझे ऐसा लग रहा है कि मै धूल के कणों पर वर्षा के जलकण बनकर गिर रही हूँ। और धरती पर पड़े बीजों मे अंकुर के रूप मे नव जीवन लेकर फिर से एक नई उमंग और जिज्ञासा के साथ इस दुनिया मे प्रवेश कर रही
हूँ। फिर महादेवी जी अपने मन से कहती है कि जिस प्रकार आकाश मे व्याप्त बादल का टुकड़ा बरसने के बाद आकाश को और भी ज्यादा उज्जवल और स्वच्छ बना देता है और उसके बाद आकाश से उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार तुम अपने अस्तित्व को त्यागकर भी अपने लक्ष्य के पथ को मैला मत होने देना और सदा तुम्हारा हित चाहने वाले लोगों को बिना निराश किए हुए अपने लक्ष्यप्राप्ति के पथ पर निरंतर आगे बढ़ते जाना।
महादेवी जी अपने कहती है कि मेरा बस एकमात्र लक्ष्य यह है कि ये संसार मुझे याद करके हमेशा सुख की अनुभूति करे क्योंकि मै हमेशा इस संसार मे नहीं रह सकती क्योंकि इस संसार का कोई भी कोना मेरा नहीं है। जिस प्रकार बादल का एक टुकडा हमेशा आकाश मे नहीं रह सकता ठीक वैसे ही मै भी हमेशा इस संसार मे नहीं रह सकती। जो कल एक अंकुर के भांति इस संसार मे आई थी आज वहीं जर्जर वृक्ष के रूप मे इस संसार से जा रही है मेरा परिचय और इतिहास बस इतना ही है।

मंगलवार, 1 जून 2021

विनयपत्रिका (कक्षा - 11) व्याख्या सहित


 

संकेत - कबहुंक हौं ---------------------- भक्ति लहौंगो।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के विनयपत्रिका शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता तुलसीदास जी हैं।

प्रसंग- तुलसीदास अपने ईष्ट भगवान श्रीराम से आशीर्वाद मांगते हुए कह रहे है कि हे-प्रभु मुझे साधु संतो का स्वभाव ग्रहण करने का आशीर्वाद दो ताकि मै आपकी भक्ति के माध्यम से इस संसार रूपी भवसागर से पार हो सकूं।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि हे-प्रभु मुझे यह आशीर्वाद दो कि मै अपनी जीवन-शैली संतो के समान बना पाऊं। और मुझे पूर्ण विश्वास है मै श्रीराम की कृपा से संत स्वभाव ग्रहण कर लूंगा। हे-प्रभु मुझे जितना लाभ हो अर्थात मुझे जो कुछ भी मिले या मेरे पास जितना है मै उसी मे संतुष्ट रहूँ। उसके अलावा और कुछ भी ना चाहूँ अर्थात किसी से कोई भी आस ना रखूं। और मै बिना किसी स्वार्थ के अपने मन, क्रम और वचन से निरंतर सभी की मदद कर सकूँ। मै लोगों के कटु वचनों को सुनने के बाद भी क्रोध की अग्नि में न जलूँ। और मै अपने घमंड से रहित शीतल और शांत मन से किसी के भी गुण-दोषों का बखान न करूं। हे -प्रभु मै कब इस शरीर की चिंता से मुक्त होकर सुख दुःख को समान भाव से सह पाऊंगा। तुलसीदास जी कह रहें है कि हे परमपिता परमेश्वर मै कब इस संसार रूपी भावनाओं के महासागर से निकलकर अपने पथ से विचलित हुए बिना हरि भक्ति को ग्रहण करूंगा, और साधु संतो के स्वभाव और उनके आचरण को ग्रहण कर पाऊंगा।


संकेत - ऐसी मूढ़ता या ------------------- निज पन की।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि मेरा मन इतना मूर्ख है कि रामभक्ति रूपी गंगा नदी को छोड़कर विषय वासना रूपी ओस की कणों से अपनी प्यास बुझाना चाहता है। मेरा मन उसी प्रकार है जैसे चातक पक्षी आकाश मे उठते धुएं को बादल समझकर टकटकी लगाकर बस उसी को ही देखता रहता है। उस धुएं मे न तो पानी होता है और न ही उससे शीतलता प्रदान होती है बस सिर्फ और सिर्फ नेत्रों की ही हानि होती है। जैसे कांच मे बाज अपनी ही परछाई को देखकर उसे अपना शिकार समझ लेता है और भूख से व्याकुल होकर अपने शिकार को पकड़ने की चाहत में कांच को तोड़ने के चक्कर मे अपनी चोंच को ही घायल कर लेता है। ठीक वैसी मनोव्यथा मेरी है। हे - कृपानिधान परमपिता परमेश्वर आप तो मेरे मन की स्थिति जानते है मै कहां तक आपको अपने मन की व्यथा कहूँ। तुलसीदास जी कहते है कि हे - प्रभु आप मेरे असहनीय दुःख का हरण करके अपने भक्त की लाज रख लिजिए।


संकेत - हे हरि! -------------------------- कबहूँ  न पावै।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि हे-हरि ! आप कष्ट हरण करने वाले के रूप मे प्रसिध्द है तो फिर आप अभी तक आपने मेरे भ्रम का हरण क्यों नहीं किया। मै जानता हूँ कि ये संसार असत्य और मिथ्या है। हे-हरि ! जब तक तुम्हारी कृपा नहीं होती , ये झूठ रूपी संसार भी सत्य प्रतीत होता है। मेरी स्थिति उस तोते की भांति है जिसने डाल को पकड़कर रखा है, परंतु तोते को लगता है कि डाल ने उसे पकड़ रखा है। मै उसी तोते के समान ही मूर्ख हो गया है। जब तक आप के ज्ञान की रोशनी नहीं मिलती तब तक हमें लगता है कि संसार ने हमे अपनी मोह-माया मे  लपेट रखा है परंतु सच तो यह है कि हम संसार की मोह-माया  मे लिपटे होते है। एक बार मैने ये सपना देखा कि मुझे बहुत से रोगों और बाधाओं ने घेर लिया है, और मृत्यु मुझे अपने साथ ले जाने के लिए उपस्थित हो गई है। वैद अनेकों प्रकार के उपचार कर रहे है, परंतु सबकुछ असफल है। पर अचानक नींद से उठने के बाद मुझे यह आभास हुआ कि यह सबकुछ तो एक भयावह सपना था और मै पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ। इस सपने के बाद मुझे यह आभास हुआ कि ये संसार एक स्वप्न के भांति है। जो सिर्फ हमें दुःखो का दर्द ही देता है। परंतु ईश्वर रूपी ज्ञानसागर प्राप्त करने के बाद हम इस संसार की मोह-माया रूपी नींद से जाग जाते है और अपार सुख और शांति की अनुभूति करते हैं। वेद, पुराण, स्मृतिग्रंथ, गुरू एंव साधुओं का सत्य कथन है कि ये संसार दुःखों का सागर है इस संसार को छोड़कर श्रीराम की कृपा के बिना कोई भी विपत्ति टल नहीं सकती। इस संसाररूपी भव सागर से पार उतरने अनेको साधन हैं। ग्रंथो पुराणों मे महान संतो और साधुओं ने अपने-अपने तरीके बताए है परंतु तुलसीदास जी कहते है कि अहंकार का भावना का त्याग किऐ बिना रामभक्ति महासागर मे डुबकी लगाने का सुख प्राप्त नहीं होगा।


संकेत - अब लौं नसानी ------------------ कमल बसैहौं।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते है कि मैने संसार की मोह-माया मे फंसकर अपना बहुत जीवन व्यर्थ किया है परंतु अब और नहीं। अब मेरी जितनी भी आयु शेष बची है उसमे मै सिर्फ अपने जीवन का सदुपयोग करुंगा। ये संसार एक अज्ञानता रूपी रात के समान है। और मै इसी रात के अंधेरे मे खोया हुआ था। लेकिन श्रीराम की कृपा से मै अज्ञानता रूपी रात के अंधेरे से बहार निकलकर अज्ञानरूपी नींद से जाग चुका हूँ। और मै इस रात को दोबारा से स्वंय को डसने नहीं दूंगा। मुझे तो अब रामरूपी अनमोल चिंतामणि मिल गई है और अब मैं इसे अपने हाथों से खिसकने नहीं दूंगा। मै अपने प्रभु श्रीराम के सुंदर और सांवले शरीर को पवित्र कसौटी बनाकर उस पर मै अपने कंचनरूपी (सोनेरूपी) शरीर को कसुंगा। तुलसीदास जी कहते है कि मुझे अपने बस मे करके अब तक ये इंद्रियाँ मुझ पर खूब हंसी और मेरा मजाक उड़ाया, परंतु मैने अब इन इंद्रियों को अपने बस मे कर लिया है और मै इन्हे अपने ऊपर हंसने का मौका नहीं दूंगा। मै आज से संकल्प लेता हूँ। कि मै अपने मन को भँवरा बनाकर श्रीराम के चरणकमलों मे वास करुंगा।

शुक्रवार, 28 मई 2021

नौका विहार ( कक्षा -12 )

 

                   

शान्त, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्जवल !
अपलक अनंत नीरव भूतल !
सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल,
लेटी हैं शान्त, क्लान्त, निश्चल !
तापस बाला गंगा निर्मल, शशिमुख से दीपित मृदु करतल ,
लहरें उर पर कोमल कुन्तल !
गोरे अंगो पर सिहर - सिहर लहराता तार - तरल सुन्दर चंचल अंचल सा नीलाम्बर !
साड़ी सी सिकुड़न सी जिस पर, शशि की रेशमी विभा से भर
सिमटी है वर्तल मृदुल लहर !

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के नौका विहार शीर्षक से लिया गया है इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत जी हैं।

प्रसंग - सुमित्रानंदन पंत जी ने नौका विहार पाठ के माध्यम से प्रकृति का मानवीकरण कर अत्यंत ही कल्पनात्मक ढंग से बहुत ही सुंदर शब्दों मे जीवन की गहराई के बारे मे बताया है।

व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि आज बड़ा ही शांतिपूर्ण माहौल है और इस शांतिपूर्ण माहौल मे सम्पूर्ण पृथ्वी पर दूध जैसी चिकनी चांदनी परत बिछी हुई है। आकाश को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो जैसी की वह अपनी प्रिया धरती को बड़े ही प्रेम से निहार रहा हो। इस दूध जैसी चांदनी रात में स्त्रीरूपी दुबली पतली सी गंगा ( नदी )दिनभर की कड़ी गर्मी से व्याकुल होकर दूध की तरह सफेद और चांदनी रात मे चमक रही बालू की शय्या अर्थात बिस्तर पर थक हारकर शांत, परेशान और गंभीर होकर लेटी हुई है। ऐसी अत्यंत सुंदर और मनमोहिनी चांदनी रात मे किसी तपस्विनी की भांति निर्मल गंगा की सुकोमल हथेली चंद्र के मुख की तरह प्रकाशित हो रही थी और गंगा नदी मे उत्पन्न लहरों को कवि ने अपनी कल्पना की कलम से उन्हें उस लेटी हुई तपस्विनी के सुंदर , कोमल और रेशमी बालो की तरह बताया है। उस मनमोहिनी चांदनी रात मे चांद तारों से युक्त गंगा नदी मे पड़ रही नीले आकाश की परछाई को देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जैसे की वह चांद तारों से युक्त आकाश उस तपस्विनी (गंगा नदी) का लहराता हुआ सुंदर सा आंचल हो। जो उस तपस्विनी (गंगा नदी) के गोरे अंगो पर लहरा रहा हो और वह तपस्विनी उस आकाशरूपी आंचल को ओढ़कर शांति से लेटी हुई हो। चंद्रमा की चांदनी से जगमगाती हुई उस तपस्विनी रूपी गंगा नदी मे उत्पन्न गोलाकार लहरें आज सिमटी हुई है और उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे की उनमे साड़ी की तरह सिकुड़न पड़ी हो।

चांदनी रात का प्रथम प्रहर ,
हम चले नाव लेकर सत्वर ।
सिकता की सस्मित सीपी पर मोती की ज्योत्सना रही विचर लो पाले चढ़ी उठा लंगर  !
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लंघु तरणि, हंसिनी-सी सुंदर तिर रही खोल पालों के पर !
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर दुहरे ऊंचे लगते क्षण भर !
कालाकांकर का राजभवन सोया जल में निश्चिंत प्रमन पलकों पर वैभव - स्वप्न सघन !

व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि चांदनी रात का प्रथम प्रहर था और हम सभी  नाव मे बैठने के लिए शीघ्रता से उसकी ओर चल पड़े। उस चांदनी रात मे गंगा के किनारे  अर्थात घाट की बालू ऐसे चमक रही थी मानो सीपी मे पड़ा मोती चमक रहा हो। हम सभी अपनी नाव मे बैठ गए और अपनी-अपनी पतवार (नाव चलाने का साधन) उठा ली।
गंगा नदी मे धीरे - धीरे मंद गति मे चल रही हमारी छोटी सी नाव किसी हंसिनी की भांति अत्यंत सुंदर लग रही थी और उस नाव को चलाने वाली पतवार को देखकर ऐसा लग रहा था मानो जैसी की वे पतवार उस हंसिनी के दो सुंदर - सुंदर से पंख हो। गंगा के किनारे पड़ी  श्वेत चांदी सी चमकती हुई बालू की परछाई को गंगा नदी मे देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो जैसे कि उस निश्चल जल के पवित्र दर्पण अर्थात शीशे मे गंगा के घाट और भी ऊंचे दिख रहें हो।
और कालाकांकर का राजभवन भी बिना किसी चिंता के निश्चिन्त होकर सो गया हो और अपनी पलकों पर वैभव और ऐश्वर्य के सुंदर सपने सजाये हो।

नौका से उठती जल - हिलोर ,
हिल पड़ते नभ के ओर छोर !
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक दल ज्योतित कर जल का अंतस्तल ,
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओर किए अविरल फिरतीं लहरें लुक - छिप पल - पल !
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी सी जल में कल
रूपहरें कपों मे हो ओझल !
लहरों के घूंघट मे झुक झुक दशमी का शशि निज निर्यक मुख दिखलाता मुग्धा सा रुक - रुक।

व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि जब हमारी नाव चल रही थी तो उसके आस पास जल की छोटी - छोटी हिलोरे उठ रही थी। उन जल की हिलोरों को देखकर ऐसा लग रहा था मानो जल के हिलने के साथ-साथ आकाश का ओर छोर भी हिल रहा हो, और उस आकाश मे विद्यमान सभी तारें बड़ी ही उत्सुकता से कोई वस्तु या किसी चीज को खोज रहें हो। गंगा मे पड़ती हुई आकाश की परछाई को देखकर ऐसा लगता है मानो आकाश के सभी तारें गंगा के अंतस्तल को प्रकाशित कर रहे हो। गंगा की लहरें अपने आंचल की ओट मे तारों को छिपाए  हुई थी जिन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी रमणीय स्त्री ने अपने आंचल से दीपों का समूह छुपा रखा हो। कवि कहते है कि सामने गंगा मे शुक्र तारे की पड़ती हुई छवि को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जैसे की कोई सुंदर परी जल मे तैर रही हो और उसके सुंदर रेशमी बाल बार-बार उसकी छवि को  अपने भीतर छुपा ले रहे हो। उस जल मे दशमी के चांद की पड़ती हुई छवि लहरों के साथ हिलती हुई ऐसा आभास करा रही थी मानो कि चंद्रमा लहररूपी घूंघट से लज्जापूर्वक झांक रहा हो ठीक वैसे ही जैसे कोई मुग्धा स्त्री (नयी नवेली दुल्हन) लज्जा की अधिकता के कारण अपने घूंघट से अपने मुहं को छिपा लेती है और कभी-कभी तिरछे मुहं से एक हलकी सी झलक दिखा देती है।

जब पहुँची चपला बीच धार ,
छिप गया चांदनी का कगार !
दो बाहों से दूरस्थ तीर धारा का कृश कोमल शरीर आलिंगन करने को अधीर !
अति दूर, क्षितिज पर विटप माल लगती भू रेखा सी अराल,
अपलक नभ नील नयन विशाल ;
मां के उर पर शिशु सा समीप , सोया धारा में एक द्वीप ,
उर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग ? क्या विकल कोक उड़ता हरने निज विरह शोक ?
छाया की कोकी को विलोक !

व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि जब हमारी छोटी सी नाव गंगा के बीच मे पहुंची तो चांदनी रात मे चांदी की तरह चमकते हुए नदी के किनारे जैसे कहीं छिप से गए हो और धारा रूपी कमजोर और सुकोमल स्त्री किनारों रूपी पुरूष को अपने गले से लगाने को आतुर हो रही हों। कवि कहते है बहुत दुर से देखने पर ऐसा लग रहा था जैसे कि क्षितिज (जहां धरती और आकाश दोनों मिलते हुए दिखाई देते हो) पर वृक्षों की मालाऐं (नदी के किनारें लगे हुए पेड़) भू - रेखा सी प्रतीत हो रही थी और उस भू - रेखा को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि वे आकाश के विशाल नीले नेत्र हो। लहरों के प्रवाह को विपरीत दिशा मे मोड़ते हुए धारा के बीच मे एक द्विप ऐसे सोया हुआ था जैसे कोई बालक अपनी माता के ह्दय पर लेटकर विश्राम कर रहा हो। तभी वहाँ एक चकवा पक्षी जल मे अपनी परछाई को देखता है और उसे चकवी समझ लेता है और फिर जल के पास जाकर अपने पंख फड़फड़ाने लगता है ये देखकर कवि कहते है कि अरे! वो कौन सा पक्षी है ? क्या वह चकवा पक्षी है? जो अपनी प्रिये चकवी  से बिछड़ने के वियोग मे व्याकुल हो रहा है और अपनी ही छवि को जल मे देखकर चकवी समझकर अत्यंत व्याकुल है।

पतवार घुमा, अब प्रतुन भार,
नौका घूमी विपरीत धार ।
डांडो के चल करतल पसार , भर-भर मुक्ताहल फेन स्फार बिखराती जल मे तार-हार !
चांदी के सांपो सी रलमल चाचती रश्मियाँ जल में चल रेखाओं सी खिच तरल - सरल !
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ - सौ राशि , सौ - सौ उडु झिलमिल
फैले - फूले जल में फेनिल ;
अब उथला सरिता का प्रवाह , लग्गी से ले-ले सहज थाह ।
हम बढ़े घाट को सहोत्साह !

व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी कहते है कि अब हमने पतवार की सहायता से अपनी हलकी और छोटी सी नाव को घुमा लिया और हमारी नौका धारा की विपरीत दिशा मे मुड़ गई। हमारी छोटी सी नाव जल मे तारों के हार रुपी रोशनी को बिखेरती हुई जल मे मोतीरूपी बुलबुलों को जल मे उत्पन्न करके डंडे रूपी हथेलियों को फैलाकर चल पड़ी। गंगा की लहरें चांदनी रात में ऐसे चमक रही थी मानो चांदी की सांप रूपी किरणें मस्ती मे लहराती हुई नाच रहीं हो। कवि कहते है कि गंगा के जल मे पड़ने वाले पानी के बुलबुलो मे फल फूलकर लहररूपी लताओं मे खिलकर सैकडों चंद्रमा और तारें झिलमिला रहे हो। इतनी देर बाद जब हम नदी के थोड़ा किनारे पर पहुंचे तो हमने बड़ी ही सहजता से एक डंडे की मदद से नदी की गहराई को नापा और फिर बड़ी ही उत्सुकता से घाट की ओर बढ़ चले।

ज्यों-ज्यों लगती नाव पार,
डर में आलोकित शत विचार ।
इस धारा सी जग का क्रम , शाश्वत इस जीवन का उद्गम , शाश्वत है गति , शाश्वत शशि का यह रजत हास, शाश्वत लघु लहरों का विलास !
हे - जग जीवन के कर्णधार ! चिर जन्म - मरण के आर - पार शाश्वत जीवन नौका विहार
मै भूल गया अस्तित्व ज्ञान , जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
करता मुझको अमरत्व दान।

व्याख्या- सुमित्रानंदन पंत जी जीवन के सत्य को बताते हुए कहते है कि हमारी जीवनरुपी नाव जितना ही पार होती जाती है  हमारे ह्दय मे उतने ही सैकडों विचार उत्पन्न होते रहते है। शायद इस धारा की भांति ही इस संसार का क्रम चलता है। जैसे इस गंगा की धारा का उद्गम हिमालय से हुआ है ठीक वैसे ही इस जीवन का उद्गम ईश्वर के अंश से हुआ है। जैसे इस धारा की गति शाश्वत (कभी ना समाप्त होने वाला) है। ठीक वैसे ही इस जीवन की गति भी शाश्वत है। क्योंकि जैसे धारा का प्रवाह कभी नहीं रुकता वैसे ही जीवनरूपी समय भी लगातार चलता रहता है। जिस प्रकार इस गंगा की धारा को एक दिन संगम (सागर) मे मिलना है उसी प्रकार ही इस जीवन को भी एक ना एक दिन सागर रूपी ईश्वर मे मिलना है। कविवर पंत जी कहते है कि ये नीलगगन और ये चंद्रमा की श्वेत चांदी सी चमकती हुई मुस्कान ये सबकुछ शाश्वत है। और शाश्वत है ये छोटी सी लहरों का विलास। हे- ईश्वर सबको जीवन देने वाले जीवनदाता तुम जीवन-मरण के चक्रव्यूह से बाहर हो और ये आपकी जीवनरूपी नौका भी शाश्वत है। हे- ईश्वर मै कुछ समय के लिए अपने अस्तित्व के अपार ज्ञान को भूल गया था मै ये भूल गया था कि ये जीवन शाश्वत है परंतु इस नौका-विहार के माध्यम से अपने अस्तित्व के ज्ञान को फिर से जान चुका हूँ। अब मेरे मन से मृत्यु का भय सदा के लिए समाप्त हो गया है और मुझे अमरता का वरदान प्राप्त हो गया है।


सोमवार, 24 मई 2021

भ्रमर गीत ( कक्षा - 11 ) व्याख्या सहित


 

                       पाठ - भ्रमर - गीत
                       कवि - सूरदास जी
        

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
हंस-सुता की सुंदर कगरी, अरु कुंचनि की छांही ।।
वै सुरभी वै बच्छ दोहिनी, खरिक दुहावन जाहीं ।
ग्वाल बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि  गहि बाहीं ।।
यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि मुक्ताहल जाहीं ।
जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं ।।
अनगन भांति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं ।।
सूरदास प्रभु रहे मौन है, यह कहि कहि पछताहीं ।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के भ्रमर - गीत शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता सूरदास जी हैं।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि मथुरा मे बैठे श्रीकृष्ण वृदांवन को याद कर रहे थे कि तभी वहाँ उनके परम मित्र ऊधौ आ जाते है और श्रीकृष्ण से उनकी चिंता का विषय पूछते है। तब श्रीकृष्ण उनसे कहते है की हे - ऊधौ मुझे ब्रज भूलता ही नहीं है बार-बार रह-रहकर ब्रज की याद आती है। हंस-सुता अर्थात सूर्य की पुत्री(यमुना) का वो पावन किनारा और सुंदर बगीचे मे लगे कदंब के पेड़ की छाया। वो सुंदर और प्यारी गायें और वो उनके सुकोमल छोटे- छोटे बछड़े जिन्हे हम चराने जाते थे और संध्या समय दूध दोहते थे। ग्वाल बालो के हाथों मे हाथ डालकर नाचना गाना और पूरे ब्रज मे धमाचौकड़ी करना यह सब अब मुझे भूलता नहीं है। ये मथुरा तो स्वर्ण नगरी है, तरह - तरह के मणियों हीरो से तथा सम्पूर्ण सुख- सुविधा, ऐश्वर्य और शांति से युक्त नगरी है परंतु फिर भी जब भी मुझे ब्रज मे बिताऐ हुए सुखों की याद आती है तो मै वहाँ जाने को आतुर हो जाता हूँ मेरा मन तड़प उठता है पर मथुरा के बारे मे सोचकर मे फिर शांत हो जाता हूँ। मैंने ब्रज मे माता यशोदा और बाबा नंद के साथ अनेकों प्रकार की अनगिनत लीलाऐ की और सभी का मन मोहा। इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण शांत हो जाते है और अपने उन पलों को याद करते हुए मन ही मन पछताने लगते है।

बिनु गुपाल बैरिनि भई कुंजैं।
तब वै लता लगतिं तन सीतल, अब भइ बिषम जवाल की पुंजै ।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलनि अलि गुंजै ।।
पवन, पान, घनसार, सजीवन, दधि सुत किरनि भानु भई भुंजै ।।
यह ऊधौ कहियौ माधौ सौं, मदन मारि कींही  हम लुंजै ।।
सुरदास प्रभु तम्हरे दरस कौं, मग जोवत अँखियाँ भई छुंजै ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि जहाँ एक तरफ श्रीकृष्ण ब्रज को भूल नहीं पा रहे है वही दूसरी तरफ ब्रज मे गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के वियोग मे अत्यंत व्याकुल होकर कह रहीं हैं की श्रीकृष्ण के बिना ब्रज की सभी गलियाँ सूनी हो गई है और वृक्षों की ये लतायें जो कृष्ण के होनें तक हमे शीतलता प्रदान करती थी आज वहीं लतायें हमें अंगार की भांति जला रहीं हैं। व्यर्थ मे ही ये यमुना बह रही है, बेकार मे ही ये पक्षी चहक रहे है,और व्यर्थ मे ही ये कमल के फूल खिल रहे है क्योंकि अब इन्हें देखने और सुनने वाला तो यहाँ है ही नहीं। वायु, जल, कपूर, संजीवनी, और ये चन्द्रमा की किरणे हमे सूर्य की भांति ही हमारे तन और मन को तपा रहीं है। तभी वहाँ पर श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गए उनके मित्र ऊधौ गोपियों को निर्गुण बह्म की उपासना करने का संदेश देने के लिए पहुँच जाते है तब गोपियाँ उनसे कहती है की हे - ऊधौ मथुरा जाकर श्रीकृष्ण से कह देना की हमे उनके वियोग मे ऐसा प्रतीत होता है जैसे कामदेव ने हमे अपने बाणो से मारकर अपाहिज बना दिया है। सूरदास जी कहते है की हे - प्रभु तुम्हारे दर्शन को व्याकुल गोपियाँ की आँखे धुंधली हो गई हैं तुम्हारी राह देखते - देखते।

हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम बचन नंद नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी ।।
जागत-सोवत स्वप्न दिवस-निसि कान्ह-कान्ह जकरी ।।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यों करुई ककरी
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी ।
यह तौ सूर तिनहिं लै सौंपो, जिनके मन चकरी ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं है की हे - ऊधौ हमारे प्रभु श्रीकृष्ण हारिल पक्षी की उस लकड़ी की भांति है जिसे वह कभी भी नहीं छोड़ता तो भला हम अपना एकमात्र सहारा अर्थात श्रीकृष्ण को कैसे छोड़ सकते हैं। इसीलिए हमने अपने प्रभु नंद के पुत्र अर्थात नंदलाल श्रीकृष्ण को अपने सच्चे मन से पूरी दृढ़ता के साथ पकड़कर अपने दिलों-दिमाग मे बसा लिया है। जागते - सोते दिन हो या रात हम अपने सपनों मे सिर्फ श्रीकृष्ण को ही देखते हैं।  हे - ऊधौ हमें ये तुम्हारी जोग की बातें सुनकर ऐसा लग रहा है मानो हम किसी कड़वी ककड़ी का सेवन कर रहे हो। और हे - ऊधौ ये तुम हमारे लिए कौन सा रोग ले आये हो, जिसे न पहले कभी देखा है न सुना है और न ही किया है इसीलिए ये रोग जाकर तुम उन्हे ही सौंप दो जिनके मन चकरी के समान है अर्थात जिनका मस्तिष्क चंचल हो।

ऊधौ जोग जोग हम नाहीं ।
अबला सार ज्ञान कहं जानै, कैसैं ध्यान धराहीं ।।
तेई मूंदन नैन कहत हो, हरि मूरति जिन माहीं
ऐसी कथा कपट की मधुकर, हमतैं सुनी न जाहीं ।।
स्त्रवन चीरि सिर जटा बंधावहु, ये दुःख कौन समाहीं ।
चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरह अनल अति दाहीं ।।
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तौ है अप माहीं ।
सूर स्याम तैं न्यारी न पल छिन, ज्यौ घट तैं परछाहीं ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ हम इस योग के योग्य नहीं हैं हम सभी तो अबला स्त्रियाँ हैं और  हमें ये तुम्हारी ज्ञान की बातें समझ नहीं आती, और जब हमें ये बातें समझ मे ही नहीं आ रही है तो भला हम तुम्हारी बातों मे कैसे ध्यान दें। हे - ऊधौ तुम हमसे उन आँखों को बंद करने के लिए कह रहे हो जिनमे स्वंय श्रीकृष्ण की छवि वास करती है। और हे - ऊधौ ये जो तुम हम अबला  स्त्रियों से कपट की बातें कर रहे हो, अब हमसे ये बातें और नहीं  सहीं जा रही हैं। तुम कह रहे हो की हम अपने कानों को चीरकर उनमे मुद्रा धारण कर ले और अपने सिर पर जटा बांध ले परंतु क्या हम अबला स्त्रियाँ इस भयंकर दुःख को सहन कर पायेंगी। हे - ऊधौ पहले से ही हमारा शरीर श्रीकृष्ण के वियोग की अग्नि मे दहक रहा है और तुम हमसे कह रहे हो की हम श्रीकृष्णरूपी चंदन को त्यागकर योग रूपी भस्म को लगा ले। जब हमारा शरीर पहले से ही दहक रहा है तो भला हम गोपियाँ भस्मरूपी योग को क्यो अपनायें? हे - ऊधौ ये जितने भी जोगी है जो अपनों को भूलकर ज्ञान और ईश्वर की तलाश मे गली गली मे भटकते है वो  तो ज्ञान और ईश्वर तो हमारे ही अंदर विद्यमान है। गोपियाँ कहती है जिस प्रकार एक घड़े से उसकी परछाई दूर नहीं हो सकती उसी प्रकार हम भी श्रीकृष्ण की यादों से दूर नहीं हो सकते। इसीलिए हे - ऊधौ ये अपना निर्गुण बह्म का ज्ञान किसी और को दो जाकर क्योंकि इसका असर हम पर नहीं होगा।

लरिकाई कौ प्रेम कहौ अलि, कैसे छूटत?
कहा कहौं ब्रजनाथ चरित, अंतरगति लूटत।।
वह चितवनि वह चाल मनोहर, वह मुसकानि मंद धुनि गावनि ।
नटवर भेष नंद नंदन कौ वह विनोद, वह बन तैं आवनि ।।
चरन कमल की सौंह करति हौं, यह संदेश मोहिं न बिष सम लागत ।
सूरदास पल मोहिं न बिसरति, मोहन मूरति सोवत जागत ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ श्रीकृष्ण के साथ तो हमारे बचपन की दोस्ती और प्रेम है। अब वह प्रेम समाप्त होना बहुत ही कठिन है। अब हम आपसे श्रीकृष्ण की लीलाओं का बखान क्या करे? उनकी नटखट लीलाऐं तो हमारे ह्दय को लूट ले जाती थी। उनकी वो प्यारी सी मुस्कान और वह मनोहर चाल जो किसी का भी मन मोह ले। उनका वो धीरे- धीरे मुस्कुराते हुए गुनगुनाना। नंदलाल अर्थात श्रीकृष्ण का वृंदावन से नटवर वेश बनाकर ब्रज मे सभी को हंसाना, हम नहीं भूल सकते वह सब। मै उन्ही श्रीकृष्ण के चरण कमलो की सौगंध खाकर कहती हूँ कि मुझे तुम्हारे द्वारा दिया गया संदेश विष से कम नहीं लग रहा है। गोपियाँ कहती है कि सोते - जागते एक भी पल हमे ये मोहिनी सूरत भुलाए से भी नहीं भूलती हैं।

कहत कत परदेसी की बात ।
मंदिर अरध अवधि बदि हमसौं, हरि अहार चलि जात ।।
ससि रिपु बरष, सूर रिपु जुग बर, हर-रिपु कीन्हौ घात ।
मघ पंचक लै गयौ सांवरो, तातै अति अकुलात ।।
नखत, वेद, ग्रह, जोरि, अर्ध करि, सोइ बनत अब खात ।।
सूरदास बस भई बिरह के, कर मींजै पछितात ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ तुम किस परदेसी की बात कर रहे हो। मंदिर अरध अर्थात आधा घर, आधा घर अर्थात पाग, पाग अर्थात पक्ष, पक्ष अर्थात पन्द्रह दिन बोलकर श्रीकृष्ण यहाँ से गए थे और हरि अहार अर्थात शेर का भोजन (मांस), मांस अर्थात मास , मास अर्थात महीना एक महीना बीत गया है। ससि रिपु (चन्द्रमा का विरोधी) अर्थात सूर्य, सूर्य अर्थात दिन , सूर रिपु (सूर्य का विरोधी) अर्थात चन्द्रमा,  चन्द्रमा अर्थात रात्रि और हर - रिपु (महादेव के दुश्मन) अर्थात कामदेव। गोपियाँ कह रहीं है कि श्रीकृष्ण के बिना दिन वर्ष के समान और रातें युगो के समान लगती है और हमे श्रीकृष्ण के वियोग मे ऐसा प्रतीत होता है मानो कामदेव ने हमपर प्रहार कर दिया हों। मघ - पंचक अर्थात माघ के महीने का पांचवा नक्षत्र अर्थात चित्रा, चित्रा अर्थात चित, चित अर्थात मन। हमारा मन तो श्रीकृष्ण अपने साथ मथुरा लेकर चले गयें है शायद इसीलिए यहाँ हमारा मन किसी और चीज मे नहीं लगता है। नखत, वेद, ग्रह, (27+4+9 = 40-20 = 20) बीस अर्थात विष। गोपियाँ कहती हैं की श्रीकृष्ण के वियोग में अब हमसे सिर्फ जहर ही खाते बनता है।

निसि दिन बरसत नैन हमारे ।
सदा रहति बरषा रितु हम पर, जब तैं स्याम सिधारे ।।
दृग अंजन न रहत निसि बासर, कर कपोल भए कारे ।
कंचुकि - पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे ।।
आँसू सलिल सबैं भइ काया, पल न जात रिस टारे ।
सूरदास प्रभु यहै परेखौ, गोकुल काहैं बिसारे।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ दिन रात हमारे नेत्र बरसते रहते है। जब से श्याम यहाँ से मथुरा गए है तब से हम पर हमेशा वर्षा ऋतु रहती है क्योंकि श्रीकृष्ण की याद मे हमारे नेत्र हर पल रोते रहते है। हमारी आँखों मे लगा काजल एक भी पल ठहरता नहीं है रोते - रोते सारा काजल बह जाता है और हमारे गाल और हाथ काजल पोछतें - पोछतें काले हो जाते है। हमारा दुपट्टा कभी भी सूखता ही नहीं है और हमे ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारे ह्दय के बीच से आंसुओं के नाले बह रहे हो। श्रीकृष्ण के यहाँ से जाने के बाद हमे ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारा शरीर आंसुओं के सागर मे डूब गया हो। और अगर हम किसी पर गुस्सा करे भी तो क्या करे और किस पर करें, क्योंकि ऐसा करने से भी हम श्रीकृष्ण को भूल नहीं सकते। गोपियाँ रोते हुए पछता रहीं है कि आखिर हमने श्रीकृष्ण को यहाँ से जाने ही क्यों दिया?

ऊधौ भली भई ब्रज आए ।
बिधि कुलाल कीन्हे कांचे घट, ते तुम आनि पकाए ।।
रंग दीन्हौं हो कान्ह सांवरै, अंग अंग चित्र बनाए ।
पातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए।।
ब्रज करि अवां जोग ईधन करि, सुरति आनि सुलगाए ।
फूंक उसास बिरह प्रजरनि संग, ध्यान दरस सियराए ।।
भरे संपूरन सकल प्रेम - जल, छुवन न काहू पाए ।
राज काज तैं गए सूर प्रभु, नंद नंदन कर लाए ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ बहुत अच्छा हुआ जो तुम श्रीकृष्ण का संदेशा लेकर ब्रज आये। ईश्वर रूपी कूम्हार ने तो हमें एक कच्चे घड़े की तरह बनाया था। परंतु तुमने यहाँ हमे श्रीकृष्ण का संदेशा सुनकर पक्का कर दिया है, और उस पके घड़े रूपी गोपियों अर्थात हम सभी को श्रीकृष्ण के सांवले रंग मे रंग दिया है। और उस घड़े अर्थात हम सभी गोपियों के अंग-अंग पर श्रीकृष्ण के चित्र बना दिए है। श्रीकृष्ण की यादों मे रोते हुए जो हमारे नेत्रों से प्रेम की वर्षा हो रही है उससे हमारे नेत्र गले नहीं क्योंकि हम पर समयरूपी छप्पर छाया हुआ है। तुमने यहाँ आकर ब्रज को आग का भठ्ठा, उसमे अपने योग रूपी ज्ञान का ईधन झोंककर उसे स्मृतिरूपी आग से सुलगाकर उसमे वियोगरूपी सांसो की फूंक मनाकर ऐसी आग जलायी कि उसमे  कच्चे घड़े को पक्का कर दिया। अब हमने उस पक्के घड़े रूपी अपने पूरा शरीर मे प्रेमरूपी जल भर लिया है और अब हम उसे किसी और को छूने नहीं देंगे। फिर गोपियाँ कहती है कि हमारे प्रभु तो राज्य कार्य के लिए गए हैं और श्रीकृष्ण का इंतजार करते रहेंगे जब तक वो लौटकर नहीं आ जाते।

अँखियाँ हरि दरसन की भूखीं ।
कैंसे रहति रूप रस रांची, ये बतियाँ सुनि रूखी ।।
अवधि गनत, इकटक मग जोवत, तब इतनौ नहिं झूखी ।
अब यह जोग संदेसौ सुनि सुनि, अति अकुलानी दूखीं ।।
बारक वह मुख आनि दिखावहु, दुहि पय पिवत पतूखीं ।
सूर सुकत हठि नाव चलावत, ये सरिता हैं सूखीं ।।

व्याख्या- सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ ऊधौ से कह रहीं हैं की हे - ऊधौ हमारी आँखें श्रीकृष्ण के दर्शन की भूखी और व्याकुल है। अब हमें तुम्हारी ये रुखी - सूखी बातें अच्छी नहीं लग रहीं है क्योंकि जिस मनुष्य के पास श्रीकृष्ण के प्रेम का रस हो, उसे भला तुम्हारी ऐसी निर्गुण बह्म की बातें कहा अच्छी लगेंगी। हमें इतना दुःख उस समय भी नहीं हुआ था, जब हम श्रीकृष्ण की याद मे राहों को निहारते हुए दिन गिन - गिनकर उनके लौटने की कामना कर रहें थे जितना कि दुःख आज हमे तुम्हारी बातें सुनकर हो रहा है। ये  बार-बार योग का संदेशा सुनकर हमारा मन अत्यंत व्याकुल और दुःखी हो रहा है। हे - ऊधौ तुम जब हमें बार-बार योग का संदेश दे रहे हो तो हमें श्रीकृष्ण का वह रूप याद आ रहा है जब वे गाय का दूध दोहकर दोने मे दूध पी रहें थे। गोपियाँ कहती हैं कि हे - ऊधौ तुम यहाँ से लौट जाओ क्योंकि जिस प्रकार सूखी नदी में नाव नहीं चल सकती, उसी प्रकार हमारा प्रेम भी अटल है और हम श्रीकृष्णरूपी प्रेम का रस त्यागकर निर्गुण बह्म की उपासना नहीं कर सकते। क्योंकि हमारा संकल्प अटल है।

गुरुवार, 20 मई 2021

कैकेयी का अनुताप (कवि - मैथिलीशरण गुप्त ) व्याख्या सहित


 

संकेत -
तदनन्दर ------------------------ महकर।

संकेत- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के कैकेयी का अनुताप शीर्षक से लिया गया है और इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त जी हैं।

व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि सभी अयोध्यावासी प्रभु श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण के साथ संसाररुपी तंबू अर्थात नील गगन के नीचे अपनी कुटिया के सामने बैठे हुए थे। उस नील गगन मे विद्यमान टिम -टिमाते तारो को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो की जैसे सभी तारे दीपक की तरह जगमगा रहें हो। वहाँ बैठे हुए सभी देवताओं के नेत्र बड़ी ही आतुरता से एक टक होकर राम की तरफ देख रहे थे। सभी लोग भयभीत होकर परिणाम के लिए उत्सुक थे। वहाँ बैठे सभी लोगों को करौंदी के प्रफुल्लित कुंज से उत्पन्न सुगंधित हवा बार - बार महक - महककर पुलकित कर रही थी।

संकेत -
वह चन्द्रलोक -----------------हनन था मेरा।

व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं कि आज धरती पर ऐसी दूधरूपी चांदनी परत बिछी है वैसी चांदनी शायद कभी चंद्रलोक मे भी नहीं हुई होगी। कुछ देर पश्चात प्रभु श्रीराम समुद्र की तरह शांत और गंभीर वाणी में बोले की हे- भरत अब तुम मुझे अपनी इच्छा बताओ कि किस प्रयोजन से तुम्हारा यहाँ आना हुआ।
इतना सुनकर वहाँ बैठे सभी लोग सतर्क होकर ध्यानपूर्वक उनकी बातें सुनने लगे जैसे सभी का कोई सपना भंग हो गया हो। तभी भरत प्रभु श्रीराम से रोकर कहते हैं कि हे- भईया क्या आपको अब भी लगता है की मेरी कोई इच्छा शेष रह गई है अर्थात मेरी कोई भी इच्छा शेष नहीं रह गई है क्योंकि मुझे तो अब निष्कंटक राज्य मिल गया है क्या इसके बाद भी मै किसी चीज की कल्पना करुँगा। मेरी वजह से आपने जंगल मे पेड़ों के नीचे बसेरा किया , क्या इसके बाद भी मेरी कोई इच्छा शेष रह गई है। मै आपसे बिछड़कर तड़प - तड़पकर मर रहा हूँ। मै अभागा भला क्या इच्छा रखूँगा। हाय शायद इसी अपयश के लिए ही मेरा जन्म हुआ था और मेरी माता के हाथों से ही मेरा हनन लिखा था।

संकेत -
अब कौन अभीप्सित -------------------- पाई जिसको?"

व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि भरत राम से कह रहे है कि भईया अब मेरी कोई भी इच्छा और अभिलाषा शेष नहीं है। मेरा तो संसार ही नष्ट हो गया है और भला जिसका घर , संसार ही बर्बाद हो गया हो तो भला ऐसे मनुष्य की कौन सी इच्छा शेष रह जायेगी। मैने आज स्वंय से ही मुंह फेर लिया है। तो हे- प्रभु अब आप ही बताओ कि मेरी कौन सी अभिलाषा शेष रह गई होगी। भरत की इन मार्मिक बातों को सुनकर भगवान श्रीराम भावुक हो गए और रोते हुए भरत को अपने गले से लगा लिया। प्रभु श्रीराम ने भरत को गले से लगाकर अपने आंसुओं से उनके निर्मल ह्दय को सींच दिया अर्थात उन्होने भरत के ह्दय मे विद्यमान ग्लानि, लज्जा को अपने शुद्ध आंसुओं से धोकर उसे स्वच्छ और शीतल बना दिया। कवि कहता है की ऐसे महान भरत के ह्दय मे विद्यमान प्रभु श्रीराम के लिए प्रेम को कोई भी नहीं समझ सकता। भरत को जन्म देने वाली उनकी माता स्वंय उन्हे न जान सकी तो भला कोई और उनके ह्दय की गहराई को क्या पहचान सकेगा।

संकेत -
"यह सच है ----------------------------- घर भैया।

व्याख्या - मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है की कैकेयी प्रभु श्रीराम से कहती हैं कि हे - पुत्र अब तुम हमारे साथ अपने घर अयोध्या लौट चलो। कैकेयी के इन वचनो को सुनकर वहाँ बैठे सभी लोग बड़ी ही हैरानी से उनकी ओर देखने लगे।
महारानी कैकेयी विधवा की तरह सफेद साड़ी मे लिपटी हुई ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो ठंडी के मौसम मे गिरने वाले सफेद बर्फ के गोलो की तरह चमक रहीं हों। वहां उनके ह्दय मे असंख्य भावो की तरंगे उठ रही थी। आज उस सभा में सिंहनी रूपी कैकयी गोमुखी गंगा के भाॅति शांत बैठी हुई थी। कैकयी राम से कहती है की हे- राम जिस भरत को मैने जन्म दिया और मै ही उसे समझ नहीं पाई अगर यह बात सच है तो राम हमारे साथ घर चलो, मै तुम्हारी माता आज तुमसे हाथ जोड़कर विनती करती हूँ की हमारे साथ अयोध्या नगरी लौट चलो।

संकेत -
अपराधिन मै हूँ -------------------------- सब चुन लो।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकयी राम से कहती है की हे- राम मै तुम्हारी माता, अपराधी हूँ तुम्हारी। वैसे तो शपथ दुर्बलता का चिह्न है लेकिन भला किसी अबला स्त्री के लिए इससे बेहतर कोई और रास्ता क्या हो सकता है? और यदि तुम्हे ऐसा लगता है कि मै भरत द्वारा उकसाई गई हूँ तो अपने पति के समान ही अपने बेटे भरत को भी खो दूं। हे - राम मुझे अब मत रोको मै जो कह रही हूँ, उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो और यदि तुम्हे मेरे वचनों मे कोई सारांश मिलता है तो तुम उसे भी चुन लो।

संकेत -
करके पहाड़ सा ------------------------- निज विश्वासी।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकयी राम से कह रही है की हे- राम मैंने इतना बड़ा पाप किया है और उसके बाद भी मै मौन रह जाऊँ। क्या मै राई भर भी पश्च्चाताप न करूं ऐसा तो नहीं हो सकता मै अवश्य अपने बुरे कर्मो का पश्च्चाताप करूंगी। इसके बाद कवि उस रात्रि समय का वर्णन करते हुए कहता है कि आकाश में नक्षत्रो से युक्त चांदनी रात मोती रूपी छोटी - छोटी ओस की बूंदे टपका रही थी। और सम्पूर्ण सभा राम से दूर हो जाने के डर से अपने ह्दय को थपकाते हुए सांत्वना दे रही थी।
वहाँ बैठी महारानी कैकयी सफेद साड़ी मे उल्का पिंड के भांति सभी दिशाओ मे चमक रही थी। वहां बैठे सभी लोग भयभीत और आश्चर्यचकित थे परंतु महारानी कैकेयी अपने कर्मो पर पछता रही थी और अपने कर्मो के लिए लज्जित थी। कैकयी अपनी दासी मंथरा को कोसते हुए कहती है कि उस निर्लज मंथरा का भी क्या दोष क्योंकि जब मेरा अपना ही मन विश्वासघाती निकला तो मै भला किसी और को क्या दोष दूं।

संकेत -
जल पंजर - गत ------------------------- कुपुत्र भले ही।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकेयी अपने ह्दय से कह रही है कि हे - मेरे अभागे ह्दय अब तू अपने किए हुए कर्मो के लिए भीतर ही भीतर पश्च्चाताप की अग्नि मे जल, क्योंकि जलन के भाव सर्वप्रथम तुझमें ही जागे थे। हे - ह्दय पर क्या सिर्फ तुझमें एक मात्र ईर्ष्या भाव बचा था, इसके अलावा और कोई भाव क्या तुझमें शेष नहीं बचा था? क्या तुम्हारी नजरों मे वात्सलय, ममता का कोई मूल्य नहीं बचा था? और आज तेरे ही बुरे कर्मो की वजह से मेरा अपना पुत्र ही पराया हो गया है। आज भले ही मुझ पर तीनों लोक थूके, जिसके ‌मन मे मेरे लिए जो भी अपशब्द हो वह मुझे बोले। जिसके मन मे जो कुछ भी बुरा है वो सभी मुझे बोलो, कोई भी मत चूकों। क्योंकि मै हूँ ही इसी लायक। परंतु भरत की माता होने का अधिकार मुझसे कोई भी मत छीनो। हे - राम मै बस तुम से यही एक विनती करती करती हूँ। आज तक संसार यह कहता था कि पुत्र भले ही कुपुत्र निकल जाये किंतु माता कभी भी कुमाता नहीं हो सकती। परंतु मैंने तो ये कहावत भी झूठी सिद्ध कर दी, और अपने ही पुत्र को वन भेजकर कुमाता बन गई।

संकेत -
अब कहें सभी -------------------------- भरत सा भाई।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकयी सभी से कह रहीं है कि आज शायद मेरे विधाता भी मुझसे नाराज है इसीलिए उन्होंने इस कहावत को ही उल्टा कर दिया कि पुत्र सुपुत्र ही रहा , परंतु माता कुमाता हो गई। मैंने भरत के दृढ़ ह्दय को देखे बिना सिर्फ उसके सुकोमल शरीर को देखा और अपने पुत्र के लिए स्वार्थी बन गई। मैंने एक बार भी परमार्थ के बारे मे नहीं सोचा अर्थात उसका परिणाम क्या होगा , उसके पीछे का परम अर्थ क्या होगा ये सबकुछ नहीं सोचा। इसी कारण आज यह विपदा आ पड़ी है। युगो - युगो तक अब इस संसार मे इतिहास के पन्नों मे मेरी कहानी को सुनकर लोग कहेंगे कि अयोध्या में कैकेयी नामक बड़ी ही अभागिन रानी रहा करती थी जिसने अपने ही पुत्र को वन भेजा था और इसी वजह से उसके पति राजा दशरथ का स्वर्गवास हुआ था। धरती पर जन्म लेने वाला हर जीव मेरी कहानी को सुनेगा और मुझे धिक्कारते हुए कहेगा कि कैकेयी जैसी रानी को स्वार्थ ने इतना घेर लिया कि वह अपने बेटे के साथ अन्याय कर बैठी। कवि कहता है कि धन्य है कैकेयी जैसी माता, सौ बार सत - सत नमन ऐसी माता को जिसने भरत जैसे बेटे को जन्म दिया।

संकेत -
पागल सी प्रभु -------------------------- लिया था मैंने।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि सम्पूर्ण सभा प्रभु श्रीराम के साथ चिल्लाकर तेज ध्वनि मे बोली की सौ बार धन्य है भरत की माता जिन्होने ऐसे तेजस्वी , निडर बालक एंव राम भक्त को जन्म दिया। फिर कैकेयी राम से कहती है कि मेरा एक ही पुत्र था मेरा इकलौता सहारा ,आज मैंने उसे भी खो दिया। मैंने यहाँ पर बड़ा भयंकर अपयश कमाया है। मैंने अपने पुत्र भरत के लिए अपनी सारी सुख - सुविधा और अपना स्वर्ग भी निछावर कर दिया। यहाँ तक मैंने तुमसे तुम्हारे अधिकार छीनकर अपने पुत्र को दे दिए।

संकेत -
पर वही आज -------------------------- दयापूर्ण हो तब भी।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकेयी राम से कह रहीं है कि हे - राम आज मेरा पुत्र भरत दीन दुखियों की तरह रो रहा है। उसकी हालत उस हिरन के भांति हो गई है जो पेड़ का पत्ता हिलने से भी शंकित हो जाता है अर्थात आज भरत के मन मे अनेक शंकाओ का वास है। वह भीतर ही भीतर डर रहा है। आज मेरे मस्तिष्क पर लगा हुआ चंदन भी अंगार के भांति जल रहा है तो भला मेरे लिए इससे बड़ा दण्ड और क्या हो सकता है। हे - राम जब मै अपने पुत्र भरत के लिए सम्पूर्ण राज्य मांग रही थी तब मैंने मोहरूपी नदी मे अपने बहुत हाथ पैर पटके। लोग ना जाने क्या - क्या नहीं करते, अपने अहंकार में, और अपने सपनों को साकार करने के लिए अर्थात वे सबकुछ करते है अपने सपनों को साकार करने के लिए। क्या मै अब भी दण्ड से डरुंगी अर्थात मै अपने कर्मो का दण्ड भुगतने से तनिक भी पीछे नहीं हटुंगी। अगर तुम मुझ पर दया भी करोगे तब भी मै नहीं डरुंगी।

संकेत -
हा दया! हन्त वह घृणा! ---------------- मुझसे न्यारे।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकेयी राम से कह रहीं है कि हे - राम मुझे न तुम्हारी दया चाहिए न घृणा चाहिए और न ही तुम्हारी करुणा चाहिए। क्योंकि आज मेरे लिए ये जाह्नवी(गंगा) भी आज वैतरणी(नरक की नदी) के समान लग रही है। मै जीवन भर नरक मे अपना जीवन यापन कर सकती हूँ परंतु स्वर्ग मेरे लिए दया के दण्ड से भी भारी है। मैंने जिस ह्दय के वश मे आकर तुम्हे वन भेजा भला उसी बज्र समान ह्दय को लेकर में कहा जाऊँ। हे - राम तुम भरत के ही खातिर अयोध्या वापस लौट चलो पुत्र। मै तो अपराधिन हूँ इससे ज्यादा और कहुंगी तो भला मेरी कौन सुनेगा। पुत्र राम मुझे भरत प्यारा है और मेरे भरत को तुम प्यारे हो इसीलिए जो मेरे भरत को प्यारा होता है वो मुझे दोगुना प्यारा होता है। तो  हे - राम मेरे दोगुना प्यारे पुत्र मुझ से दूर मत रहो अर्थात हमारे साथ अयोध्या वापस लौट चलो पुत्र।

संकेत -
मै इसे न जानू, ------------------------- भुजा भर भेटा।

व्याख्या- मैथिलीशरण गुप्त जी कहते है कि कैकेयी राम से कह रहीं है कि हे - राम मै तो इसकी माता होते हुए भी इसे न जान सकीं परंतु तुम तो इसे भली-भांति जानते हो और इसे स्वंय से ज्यादा प्यार करते हो। तुम दोनों भाईयों का प्रेम तो पारस्परिक है और आज इस सभा मे वो प्रेम अगर सभी के सामने उजागर हुआ हो तो मेरे सारे पाप और दोष पुण्य के संतोष मे परिवर्तित हो जाए। मै भले ही आज कीचड़ से युक्त हूँ परंतु मेरा पुत्र भरत उस कीचड़ मे खिला हुआ कमल है बस मुझे इसी बात का संतोष है। यहाँ आये हुए सभी ज्ञानी लोग अपने तेज मस्तिष्क से तुम्हे उचित उपाय देकर समझाए। मेरे पास तो बस एक ह्दय ही है और वो भी व्याकुल। जिस ह्दय ने आज फिर तुम्हें वात्सलय के वश मे आकर अपनी भुजाओं मे भर लिया है।




शनिवार, 15 मई 2021

गीत (जयशंकर प्रसाद ) व्याख्या सहित


 

बीती विभावरी जाग री।
अम्बर पनघट में डुबो रही -
तारा - घट  ऊषा - नागरी।

           खग - कुल  कुल-कुल सा बोल रहा।
           किसलय का अंचल डोल रहा ,
           लो यह लतिका भी भर लायी -
           मधु - मकुल नवल - रस गागरी।

अंधरो में राग अमन्द पिये,
अलकों में मलयज बन्द किये -
तू अब तक सोयी है आली!
आँखो में भरे विहाग री।।

संदर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के गीत शीर्षक से लिया गया है इसके रचयिता जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग- जयशंकर प्रसाद जी ने अपनी कविता "गीत" में प्रातःकाल के मनोरम और सुंदर दृश्य का मानवीकरण कर उसे एक सुंदर स्त्री का रुप देकर जागरण काल के मनमोहक वातावरण को अत्यंत ही मधुर  लेखिनी में प्रस्तुत किया है

व्याख्या - प्रातःकाल के अत्यंत मनोरम और मनमोहक वातावरण का दृश्य सुनाते हुए जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि एक सखी दूसरी सखी से कह रही है कि रात्रि समाप्त हो गई है और यह समय तुम्हारे उठने का है। इसीलिए हे- सखी तुम जाग जाओ। जरा उठकर देखो आकाशरूपी नदी में ऊषा रूपी सुंदरी सभी तारो रूपी मटकों को डुबो रही है।

❄️ सभी पक्षी आकाश मे खुशी से चहक रहे है, और प्रातःकाल की शीतल और स्वच्छ वायु मन्द गति मे डोल रही है। लो देखो जरा ये लताऐ भी पराग रूपी रस से युक्त नवीन रसो की गगरी भर लाई है।

❄️ हे- सखी जरा आँखे खोलकर देखो कि ,किस प्रकार प्रातःकालीन सुंदरी अपने होंठो से प्रेम की मदमस्त मदिरा पी रही है और अपने बालों मे चंदन जैसी सुगंध को समाहित किए हुए है। और हे-सखी तू अभी भी अपनी आँखों मे आलस्य की निद्रा भरे हुए सो रही है।

शैली - मुक्तक
भाषा - खडीबोली


बुधवार, 12 मई 2021

पवन - दूतिका व्याख्या सहित


 बैठी खित्रा यक दिवस वे गेह में थी अकेली।

आके आंसू दृग - युगल में थे धरा को भिगोते।
आई धीरे , इस सदन में पुष्प - सद्गंध को ले।
प्रातः वाली सुपवन इसी काल वातायनों से।।१।।

संकेत - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के पवन - दूतिका शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता अयोध्यासिंह उपाध्याय ' हरिऔध ' जी हैं।

व्याख्या - हरिऔध जी कहते हैं कि एक दिन राधा जी अपने घर में अकेली उदास बैठी हुई थी, और उनकी दोनो आँखो से बहते हुए आंसू धरती पर गिरकर उसे गीला कर रहे थे। तभी उसी समय फूलो की मनमोहक सुगंध के साथ वायु खिड़की के माध्यम से उनके घर में प्रवेश करती है। ऐसी मनमोहक और अत्यंत स्वच्छ वायु उनकी यादों को ताजा करने लगती है, जो पल उन्होने कृष्ण के साथ बिताए थे। इससे उनके कष्ट और बढ़ने लगते हैं।

संतापो को विपुल बढ़ता देख के दुःखिता हो।
धीरे बोली सदुख उसमे श्रीमती राधिका यों।
प्यारी प्रातः पवन इतना क्यों मुझे है सताती।
क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से।।२।।

व्याख्या - हरिऔध जी कहते हैं कि अपने दुखो को ऐसे बढ़ता देख कर राधा दुःखी होकर धीरे से पवन से बोली की हे- प्रातःपवन तुम मुझे इतना क्यों सता रही है। क्या तुम भी इस क्रूर काल की तरह ही मुझसे नाराज हो।

मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्र वाले।
जाके आये न मधुवन से औ न भेजा संदेसा।
मै रो - रो के प्रिय - विरह से बावली हो रही हूँ।
जा के मेरी सब - दुःख कथा श्याम को सुना दे।।३।।

व्याख्या - हरिऔध जी कहते हैं कि राधा दुःखी होकर पवन से कह रही हैं कि , मेरे नवीन बादलरूपी , कमल के समान नेत्रो वाले श्रीकृष्ण न तो मथुरा से लौटकर आए और न ही कोई संदेशा भेजा है। मै उनके विरह की अग्नि मे जल रही हूँ। और उनकी यादों मे रो- रोकर बावली हुई जा रही हूँ। हे- पवन तुम जाओ और मेरी जितनी भी दुःखद कथा है उसे जाकर श्रीकृष्ण को सुना दो।

ज्यों ही मेरा भवन तज तू अल्प आगे बढ़ेगी।
शोभावली सुखद कितनी मंजू कुंजे मिलेंगी।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह लेंगी तुझे वे।
तो भी मेरा दुःख लख वहाँ जा न विश्राम लेना।।४।।

व्याख्या- हरिऔध जी कहते हैं कि राधा दुःखी होकर पवन से कह रही हैं कि हे - पवन मेरे घर से निकलकर तुम जैसे ही थोड़ा सा आगे बढ़ेगो तो तुम्हे अत्यंत सुंदर बगिया मिलेगी। वो तुम्हें अपने प्यारे - प्यारे फूलो और सुंदर लताओ से आकर्षित करने का प्रयास करेगी। लेकिन तुम उसके मोह में पड़कर वहाँ मत रुकना और मेरो दुःखो को यादकर विश्राम किए बगैर निरंतर आगे बढ़ते रहना।

थोड़ा आगे सरस रव का धाम सत्पुष्पवाला।
अच्छे-अच्छे बहु द्रुम लतावान सौंदर्यशाली।
प्यारा वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा।
आना जाना इस विपिन से मुह्यमान न मिलेगा।।५।।

व्याख्या - हरिऔध जी कहते हैं कि राधा जी पवन से कह रही हैं कि हे- पवन और आगे बढ़ने पर तुम्हे अत्यंत मनोरम और शोभावान वृंदावन मिलेगा जिसमे मधुर पुष्प होंगे ,सुंदर और पुष्पो से लदी लताओ से घिरा हुआ अत्यंत मनमोहक और अद्वितीय प्यारा वृंदावन होगा जो तुम्हे अपनी सुंदरता से मोह लेने का प्रयास करेगा। लेकिन तुम उसके मोह में पड़कर वहाँ मत रुकना और मेरो दुःखो को यादकर विश्राम किए बगैर निरंतर आगे बढ़ते रहना।

जाते - जाते अगर पथ में क्लान्त कोई दिखावे।
तो जाके सत्रिकट उसकी क्लान्तियो को मिटाना।
धीरे-धीरे परस करके गात उत्ताप खोना।
सद्गंधो से श्रमित जन को हर्षितों सा बनाना।।६।।

व्याख्या - हरिऔध जी कहते हैं कि राधा जी पवन से कह रही हैं कि हे- पवन अगर राह में चलते-चलते तुम्हे कोई थका व्यक्ति दिखे तो तुम उसके पास जाकर उसकी थकान मिटा देना और धीरे-धीरे उसके शरीर को स्पर्श करके उसकी गरमी को समाप्त कर अपनी सुगंधित हवा से उसे प्रसन्न और आनंदित कर देना।

लज्जाशील पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये।
होने देना विकृत - वसना तो न तू सुंदरी को।
जो थोड़ी भी भ्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना।
होंठो की औ कमल दुख की म्लानलाऐं मिटाना ।।७।।

व्याख्या - हरिऔध जी कहते हैं कि राधा पवन से कह रही हैं कि हे- पवन रास्ते में तुम्हे कोई लज्जाशील महिला और नई नवेली दुल्हन दिखे तो तुम उसके वस्त्रो को उड़ा मत देना और यदि वह थकी हो तो तुम उसको अपनी गोद में लेकर उसकी सारी थकान मिटा देना। और उसके होंठो और कमलरूपी मुख की सभी मलिनताओं को मिटा देना।

कोई क्लान्ता कृषक - ललना खेत में जो दिखावे।
धीरे - धीरे परस उसकी क्लान्तियो को मिटाना।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला।
छाया द्वारा सुखित करना , तप्त भूतांगना को।।८।।

व्याख्या - हरिऔध जी कहते है कि राधा पवन से कह रही हैं कि हे- पवन यदि तुम्हें किसी किसान की बेटी दिखे तो धीरे-धीरे उसकी सारी थकान मिटा देना और आकाश में कोई बादल का टुकड़ा जा रहा हो तो उससे उस बच्ची के ऊपर छाया करके उसे प्रसन्न कर देना जिससे उसकी सारी थकान और कष्ट दूर हो सके।

रविवार, 9 मई 2021

दोहावली (कक्षा- 11)

 


हरो चरहिं, तापहिं बरत , फरे पसारहिं हाथ।
तुलसी स्वारथ मीत सब , परमारथ रघुनाथ

संकेत - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के ' दोहावली ' शीर्षक से लिया गया है , इसके रचयिता ' गोस्वामी तुलसीदास ' जी हैं।

व्याख्या - तुलसीदास जी कहते हैं कि जब पेड़ हरा होता है तो जानवर उसे चरते(खाते) है जब पेड़ पूरी तरह से सूख जाता है तो वह ईधन (जलाने) के काम में आता है और जब हरा - भरा तथा फलों से लदा होता है तो हम सब उनके फल तोड़ कर खाते है। इस तरह से वृक्षों का हर एक भाग किसी न किसी काम मे आता है। इस संसार में सभी लोग सिर्फ बस अपने मतलब के लिए एक - दूसरे से दोस्ती रखते है , सिर्फ ईश्वर की बनाई प्रकृति और ये पेड़ - पौधे ही है जो बिना किसी श्वार्थ के सबकी मदद करते है।

मान राखिबो, मांगिबो, पियसों नित नव नेहु।
तुलसी तीनिउ तब फबैं, जो चातक मत लेहु

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि हमे हमेशा अपने आत्म सम्मान की रक्षा करनी चाहिए। हमे हमेशा अपने प्रिय अथवा किसी अपने से ही जरुरत की वस्तु मांगनी चाहिए , किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं जो हमें वह वस्तु ना दे और , क्योंकि ऐसा करने से हमारी खुद की ही बेज्जती होती है। तुलसीदास जी का कहना है कि ये तीन बाते हमे चातक पक्षी से सीखनी चाहिए।

नहिं जाचत, नहिं संग्रही, सीस नाइ नहिं लेई
ऐसे मानी मांगनेहिं, को बारिद बिन देई 

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि चातक पक्षी सिर्फ स्वाती नक्षत्र में गिरने वाली पानी की बूंदों से ही अपनी प्यास बुझाता है अन्यथा वह प्यासा रहता है, लेकिन कभी भी उस पानी को संग्रहित करके नहीं रखता और जब भी स्वाती नक्षत्र में वर्षा होती है तो सदैव गर्व से अपने सर को ऊंचा करके पानी पीता है ऐसे मांगने पर भला कौन सा बादल पानी पिलाने से मना करेगा, अर्थात ऐसे पक्षी को तो सभी पानी पिलाना चाहेंगे।

चरन चोंच लोचन रंगौ , चलौ मराली चाल।
छीर - नीर बिबरन समय, बक उघरत तेहि काल

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि कोई भी बगुला अगर अपने पैरो , चोंच और आंखों को रंगकर हंस की तरह मनमोहक चाल चलकर भले ही वह खुद को और दूसरो को भ्रमित करे , परंतु पानी और दूध को अलग करने की प्रक्रिया के समय सभी को उसकी सच्चाई का ज्ञात हो जायेगा। क्योंकि दूध और पानी को अलग करने की क्षमता तो सिर्फ हंस के पास होती , बगुले के पास नहीं ।

आपु-आपु कह भलो, अपने कह कोइ कोइ 
 तुलसी सब कह जो भलो, सुजन सराहिय सोइ

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि अपने को तो सभी भला कहते है और अपने बारे में हमेशा अच्छा सोचते और करते हैं पर अपने परिवारजनों और दूसरो के लिए बहुत कम ही लोग सोचते हैं। और जो लोग सबके बारे मे अच्छा सोचते हैं और उनकी मदद करते है। ऐसे सज्जन व्यक्ति ही सराहना करने योग्य होते हैं।

ग्रह, भेषज, जल, पवन, पट, पाइ कुजोग - सुजोग।
होइ कुबुस्तु सुबस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि नक्षत्र, दवाई, पानी, वायु, वस्त्र ये सभी वस्तुएं अगर अच्छे योग को प्राप्त होंगी तो अच्छी हो जाएंगी और अगर बुरे योग को प्राप्त होंगी तो बुरी हो जायेंगी। अर्थात अगर ग्रह अच्छे नक्षत्र में होगा तो सभी कार्य पूर्ण रुप से सम्पन्न होंगे परंतु अगर ग्रह बुरे नक्षत्र में है तो सभी शुभ कार्य बंद कर दिए जाते है। उसी प्रकार अगर रोगी को सही समय पर सही दवा दे दी जाए तो वह ठीक हो सकता है और अगर ना दी जाए तो वह मर भी सकता है। पानी अगर गंगा जल मे मिल जाए तो वह शुध्द हो जाता है और यदि गंदे पानी मे मिल जाए तो अपवित्र हो जाता है। वायु यदि फूलो या किसी सुंदर और साफ वातावरण से होकर गुजरे तो तन-मन को राहत राहत देती है लेकिन यदि गंदे वातावरण से होकर गुजरे तो सांस भी नहीं लेने देती। उसी प्रकार यदि कपड़े अच्छे से पहने जाए तो हमारे व्यक्तितव को निखारते है और दूसरे तरफ यदि ढंग से न पहने जाए तो व्यक्तितव को बुरा भी बना सकते हैं।
इस संसार में हर एक वस्तु के दो पहलू होते हैं एक अच्छा तो दूसरा बुरा। इसे सिर्फ विद्वान लोग ही समझ सकते हैं, अर्थात हर मनुष्य के अंदर अच्छाई और बुराई दोनो ही विद्मान है। फर्क सिर्फ देखने के नजरिए में होता है। अगर आप अच्छे चरित्र वाले होंगे तो आपको सभी अच्छे लगेंगे लेकिन आप बुरे हैं तो आपको सभी बुरे लगेंगे।

जो सुनि समुझि अनीतिरत ,जागत रहै जु सोइ।
उपदेसिबो जगाइबो , तुलसी उचित न होइ

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं जो व्यक्ति सुनते और समझते हुए भी अनीति और बुराई मे लगा रहता है ऐसा व्यक्ति जागते हुए भी सोया हुआ होता है। और ऐसे व्यक्ति को समझाना और उपदेश देना दोनों ही व्यर्थ है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को ये उपदेश भरी बातें कभी समझ में नहीं आयेंगी।

बरषत हरषत लोग सब , करषत लखै न कोइ।
तुलसी प्रजा - सुभाग तें भूप भानु सो होइ

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि जब वर्षा होती है तो सभी लोग खुशी नाचते है, गाते हैं और झूमते है। लेकिन जब जल वाष्प के रुप में आकाश में जाकर ठंडा होकर बादल का रूप लेता है तो इसे कोई भी नहीं देख सकता है। धन्य है ऐसी प्रजा जिसे सूर्य रूपी राजा मिला। सूर्य रूपी राजा जो सिर्फ देते हुए दिखाई देते हैं पर लेते हुए नहीं। 

मंत्री , गुरु अरु बैद जो , प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धरम तन तीनि कर , होइ बेगिही नास

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि मंत्री , गुरु और वैद अगर ये तीनो ही किसी के भय मे आकर मीठे बोल बोलते है तो राज्य ,धर्म और शरीर इन तीनो का नाश होना निश्चित है। क्योंकि अगर मंत्री चापलूस है और अपने राजा को सही राह ना दिखाकर उनकी बढ़ाई करता है तो उससे सम्पूर्ण राज्य का नाश होगा। गुरु किसी लोभ अथवा भय मे अगर अपने शिष्य को उचित ज्ञान ना दे तो उससे धर्म की हानि होगी। और वैद अगर किसी भय अपने रोगी को उसके रोग्यानुसान सही बूटी ना दे तो उससे शरीर का नाश निश्चित है।

तुलसी पावस के समय,धरी कोकिलन मौन।
अब तौ दादुर बोलिहैं, हमैं पूछिहैं कौन

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि जब तक ग्रीष्म ऋतु के दिनों में आम के पेड़ों पर बौर आता है और पेड़ों पर आम रहते हैं कोयल की आवाज सिर्फ तभी तक सुनाई देती है, पर जैसे ही वर्षा ऋतु का समय आता है वैसे ही कोयल के कूकने की आवाज आनी बंद हो जाती है, ऐसा इसलिए क्योंकि वर्षा ऋतु के दिनों में मेढ़क बोलते हैं अर्थात वह समय मेढ़को के बोलने का होता है और प्रकृति हमेशा समयानुसार ही चलती है।

बुधवार, 5 मई 2021

कवितावली (लंका - दहन)



                         प्रथम
बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानौं,
लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है ।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सी उघारी है ।।
तुलसी सुरेस चाप, कैधौं दामिनी कलाप,
कैंधौं चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है ।
देखे जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं,
“कानन उजायौ अब नगर प्रजारी है ।।

संदर्भ - प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य पुस्तक के कवितावली (लंका - दहन) शीर्षक से लिया गया है। इसके कवि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं।

व्याख्या - महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी की विशाल पूंछ मे लगी  विकराल आग की लपटों को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है की मानो आज सम्पूर्ण लंका को निगलने के लिए स्वंय काल ने अपनी जीभ को फैला दिया है।
2):- धुंए से भरे आकाश को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो सम्पूर्ण आकाश अनेकों पुच्छल तारो से भरा हुआ है और सभी लंकावासियो का नाश करने के लिए महावीर योध्दाओं ने अपनी तलवारें निकाल ली है।
3):- लंका में लगी भयानक आग की लपटों से उठने वाले धुंए से भरे अंधकारमय आकाश में चमकने वाली बिजली को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे सम्पूर्ण आकाश में इन्द्रधनुष चमक रहा हो, और पिलती हुई लंका को देखकर ऐसा लग रहा है मानो सुमेरू पर्वत से अग्नि की नदी बह रही हो।
4):- तुलसीदास जी कहते हैं कि सभी राक्षस और राक्षसी व्याकुल होकर कह रहे हैं कि इस वानर ने पहले तो महल को उजाड़ दिया और अब नगर को भी उजाड़ रहा है।

                     द्वितीय
हाट, बाट, कोट, ओट, अट्टनि, अगार पौरि,
खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्ही अति आगि है।
आरत पुकारत , संभारत न कोऊ काहू,
ब्याकुल जहाँ सो तहाँ लोग चले भागि हैं ।।
बालधी फिरावै बार बार झहरावै, झरैं
बूंदिया सी लंक पघिलाई पाग पागि है।
तुलसी बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं
" चित्रहू के कपि सों निसाचर न लागिहैं "।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि बाजार , मार्ग , किला , गली , अटारी, तथा गली गली में दौड़ दौड़ कर हनुमान जी अपनी पूंछ से आग लगा रहे हैं।
2):- सभी लोग एक दूसरे को पुकार रहे है , लेकिन कोई भी किसी को संभाल नहीं रहा है।
व्याकुल होकर सब इधर से उधर भाग रहे हैं।
3):- हनुमान जी जब अपनी पूंछ को बार -बार
हिलाकर झाड़ते हैं तो उनकी पूंछ मे लगी विकराल आग की लपटों से छोटी - छोटी अग्नि की बूंदे जब गिरती है तो ऐसा लगता है मानो जैसे कोई पिघली हुई लंका रूपी पाग मे बूंदिया बना रहा हो।
4):- तुलसीदास जी कहते हैं कि अत्यंत व्याकुल राक्षस और राक्षसी कह रहे हैं कि अब तो कोई निशाचर चित्र मे बने वानर से भी गलती से दुश्मनी मोल नहीं लेगा।
                       तृतीय
लपट कराल ज्वाल-जाल-माल दहूँ दिसि,
अकुलाने पहिचाने कौन काहि रे ?
पानी को ललात, बिललात, जरे’ गात जाते,
परे पाइमाल जात, “भ्रात! तू निबाहि रे” ।।
प्रिया तू पराहि, नाथ नाथ तू पराहि बाप
बाप! तू पराहि, पूत पूत, तू पराहि रे” ।
तुलसी बिलोकि लोग ब्याकुल बिहाल कहैं,
“लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे’ ।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि विकराल  आग की लपटों से उठता हुआ धुआँ चारों दिशाओं में फैला हुआ है और इस धुंए के बीच में सभी व्याकुल होकर एक दूसरे को पुकार रहे है पर ऐसे भयानक धुंए के अंधकार में कोई किसी को पहचान नहीं रहा है।
2):- सभी लोग बुरी तरह से जले हुए है और अत्यंत व्याकुल होकर पानी पानी चिल्लाते हुए  इधर से उधर भाग रहे हैं। सभी विपत्ति में पड़े हुए हैं और अपने भाई बंधुओं को पुकारते हुए कहते हैं कि हे भाई - बंधुओं हमे बचालो।
3):- तुलसीदास जी कहते हैं कि सभी राक्षस और राक्षसी परेशान होकर अपने भाई बंधुओं से भाग जाने के लिए कह रहे हैं पति कहता है कि हे- प्रिये( पत्नी ) तुम यहाँ से भाग जाओ , पत्नी कहती है की हे नाथ तुम  यहाँ से भाग जाओ। बेटा कहता है कि पिता जी आप यहाँ से भाग जाइऐ , पिता कहते हैं की बेटा तुम यहाँ से भाग जाओ।
4):- तुलसीदास जी कहते हैं कि सभी लोग अत्यंत व्याकुल होकर कह रहे हैं कि हे दस मुख  वाले रावण लो आज अपनी बीस आंखों से सम्पूर्ण लंका का सर्वनाश देखलो।
                          चतुर्थ
बीथिका बजार प्रति , अट्नि अगार प्रति,
पवरि  पगार  प्रति  बानर  बिलोकिए।
अध ऊर्ध बानर, बिदिसि दिसि बानर है,
मानहु रह्यो है भरि बानर तिलोकिए।।
मूंदे आँखि हिय में, उघारे आँखि आगे ठाढो,
धाइ जाइ जहाँ तहाँ और कोऊ को किए ?
" लेहु अब लेहु, तब कोऊ न सिखायो मानो,
सोई सतराइ जाइ जाहि जाहि रोकिए" ।।

व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं राक्षसो को बाजार में, अटारी पर , दरवाजो पर, दीवार पर हर जगह वानर ही वानर दिखाई दे रहें हैं।
2):- यहाँ - वहाँ , ऊपर - नीचे  चारो दिशाओं में वानर ही वानर दिखाई दे रहें हैं ऐसा लगता है मानो जैसे तीनों लोक वानरो से भर गये हैं ।
3):- सभी लंकावासियो के भीतर वानरो का इतना डर बैठ गया है कि आँखे बंद करने पर ह्दय मे और आँखे खोलने पर सामने खड़े हुए वानर ही दिख रहे हैं, और तो और यहाँ - वहाँ वो लोग जिस तरह भी जा रहे हैं उन्हे सिर्फ वानर ही वानर दिखाई दे रहें हैं।
4):- सभी लंकावासी एक - दूसरे से कह रहे हैं कि लो अब भुगतो उस समय रावण को किसी ने नही समझाया। जब हम सभी को रावण को समझाना चाहिए था , तब हम सभी उसके साथ थे। अगर उस समय हम लंकावासी उसका साथ ना देकर उसे सही उपदेश देते तो शायद आज लंका की ये दुर्दशा नहीं होती। यह सब हमारे ही बुरे कर्मो का फल है।


गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

हिन्दी पद्य साहित्य का इतिहास

 


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य के इतिहास कारो के मध्य चमकते हुए एक ऐसे 'ध्रुवतारा' है, जिनके विचारो की आभा कभी मलिन नहीं हो सकती। उनका दिव्य लेखन (हिन्दी साहित्य का इतिहास) आज भी मील का पत्थर सिध्द होता है। हिन्दी साहित्य का इतिहास  महान लेखक रामचन्द्र  शुक्ल  द्वारा लिखा गया हैं।


हिन्दी पद्य साहित्य के इतिहास में लगभग 1000 वर्षो के  इतिहास को चार चरणों में  विभाजित किया गया है।

❄️ आदिकाल (वीरगाथा काल)  [993 - 1318]
❄️ भक्तिकाल (पूर्व मध्यकाल)  [1318 - 1643]
❄️ रीतिकाल  (उत्तर मध्यकाल) [1643- 1843]
❄️ आधुनिक काल (वर्तमानकाल) [1843 - आज तक]

आदिकाल की प्रमुख विशेषताऐ  कुछ इस प्रकार हैं।
❄️ आश्रयदाताओ की प्रशंसा 
❄️ सामूहिक राष्ट्रियता की भावना
❄️ युध्दो का सुंदर और सजीव वर्णन 
❄️ वीर रस के साथ श्रृंगार रस की प्रधानता
❄️ ऐतिहासिक वृत्तो में कल्पना का प्राचुर्य (अधिकता)

✏️  प्रबंध  काव्य  और  गीत  काव्य  वीरगाथा  काल  की  रचनाओं  की  विशेषताऐं  हैं।

आदिकाल को पांच भागो में बाँटा गया हैं।
❄️ सिध्द साहित्य
❄️ जैन साहित्य 
❄️ रासो साहित्य 
❄️ नाथ साहित्य 
❄️ लौकिक साहित्य

✏️ सिध्द साहित्य के प्रथम कवि सरहप्पा थे। जो बौध्द धर्म का प्रचार - प्रसार करते थे।
✏️ नाथ साहित्य के प्रवर्तक श्री- गोरखनाथ थे।
✏️ वीर और श्रृंगार रस वीरगाथा काल के प्रमुख रस है।

काव्य को दो भागो मे बाँटा गया है।
❄️ श्रव्य काव्य
❄️ दृश्य काव्य 

श्रव्य काव्य को दो भागो मे बाँटा गया है।
❄️ गद्य 
❄️ पद्य 

प्रबंध काव्य को दो भागो मे बाँटा गया है।
❄️ महाकाव्य 
❄️ खंडकाव्य

              भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल )
भक्तिकाल को दो भागो में बाँटा गया हैं ।
❄️ सगुण भक्ति शाखा
❄️ निर्गुण भक्ति शाखा
1):- सगुण भक्ति शाखा के भेद
❄️ रामाश्रयी शाखा
❄️ कृष्णाश्रयी शाखा
2):- निर्गुण भक्ति शाखा के भेद
❄️ ज्ञानाश्रयी शाखा
❄️ प्रेमाश्रयी शाखा

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताऐ :-
❄️ एकेश्वरवाद 
❄️ गुरू की महिमा का बखान 
❄️ वह्य- आडंबरों का विरोध
❄️ सत्संगति की भावना
❄️ ज्ञान और प्रेम का महत्व

ज्ञानाश्रयी शाखा की प्रमुख विशेषताऐ :-
❄️ निर्गुण बह्म की उपासना 
❄️ अवतारवाद का खंडन
❄️ भगवान के नाम स्मरण तथा भजन पर बल
❄️ आंतरिक शुध्दि एंव प्रेम साधना पर बल 

प्रेमाश्रयी शाखा की प्रमुख विशेषताऐ :-
❄️ सूफी सिध्दांतो का निरूपड।
❄️ पूर्वी अवधी भाषा तथा दोहा,चौपाई ,छंदों का प्रयोग ।

कृष्णाश्रयी शाखा की प्रमुख विशेषताऐ :-
❄️ श्रीमद् भागवत गीता का आधार
❄️ सख्य, वात्सल्य एंव मधुर भाव की उपासना 
❄️ ब्रजभाषा मे मुक्तक काव्य शैली की प्रधानता, जिसमें अद्भुत संगीतात्मकता का गुण विद्यमान हैं।

रामाश्रयी शाखा की प्रमुख विशेषताऐ :- 
❄️ लोकहित की भावना के कारण मर्यादा की प्रबल भावना 
❄️ अवधी और ब्रजभाषा मे रचना
❄️ प्रबंध और मुक्तक काव्य शैलियो का प्रयोग
❄️ दास्य भाव की भावना 
                 
   संतकाव्य धारा के प्रमुख कवि :-
1):- कबीर 
2):- नानकदेव 
3):- रैदास आदि 

सगुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि :-
1):- सूरदास 
2):- मीराबाई
3):- तुलसीदास 
4):- केशवदास आदि।

निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि:-
1):- कबीरदास
2):- मलिक मोहम्मद जाएसी 
3):- मंझन
4):- कुतुबन आदि।

ब्रजभाषा तथा अवधी भाषा के मध्यकालीन महाकाव्य :-
❄️ सूरदास (कवि) - सूरसागर (ब्रजभाषा)
❄️ तुलसीदास (कवि)- रामचरितमानस (अवधी)

अष्टछाप के प्रमुख कवि :-
1):- सूरदास 
2):- कुंभनदास
3):- परमानंददास
4):- कृष्णदास
5):- छीतस्वामी
6):- गोविंददास
7):- चतुरभुजदास
8):- नंददास
अष्टछाप के कवि ही कृष्ण काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। महाप्रभु वल्भाचार्य जी के चार शिष्यो एंव अपने चार शिष्यो को मिलाकर वल्भाचार्य के सुपुत्र गोसाई विट्ठलनाथ जी ने अष्टछाप की स्थापना की।

             रीतिकाल( उत्तर मध्यकाल )
रीतिकाल को दो भागो में बाँटा गया हैं।
❄️ रीतिबध्द 
❄️ रीतिमुक्त

रीतिबध्द और रीतिमुक्त कविता का अंतर स्पष्ट कीजिए।
❄️ रीतिबध्द काव्य के अंतर्गत वे ग्रंथ आते हैं जिनमें काव्य तत्वो के लक्षण देकर उदाहरण के रूप में काव्य रचनायें की जाती है ।
❄️ जबकि रीतिमुक्त काव्यधारा की रचनाओं में रीति परंपरा के साहित्य बंधनों एंव रूढियो से मुक्त स्वछंद रचनायें की जाती हैं ।

रीतिमुक्त के प्रमुख कवि = घनानन्द
रीतिबध्द के प्रमुख कवि = आचार्य चिंतामणि

रीतिकाल की प्रमुख विशेषताऐ :-
❄️ राज्ञाश्रयी कवियो द्वारा लक्षण लक्ष्य पद्दति पर काव्य रचना की गई
❄️ श्रृंगार रस की प्रधानता एंव वीर रस का ओजस्वी वर्णन
❄️ मुख्यता मुक्तक शैली एंव ब्रजभाषा का प्रयोग
❄️ कला पक्ष परयुग

रीतिबध्द काव्य के प्रमुख कवि :-
1):- आचार्य चिंतामणि 
2):- केशवदास
3):- मतिराम
4):- महाकवि भूषण

रीतिमुक्त काव्य के प्रमुख कवि :-
1):- घनानन्द
2):- ठाकुर 
3):- बोधा
4):- आलम 

रीतिकाल की रचना के प्रमुख छंद :-
❄️ कवित्त
❄️ सवैया

            आधुनिक काल (वर्तमानकाल)
आधुनिक काल को चार भागो में बाँटा गया हैं ।
❄️ भारतेन्दु युग (पुनर्जागरण काल)= [1857- 1900 ई०]
❄️ दिवेदी युग (जागरण काल)= [1900- 1922 ई०]
❄️ छायावादी युग =[1919- 1938 ई०]
❄️ छायावादोत्तर युग = [1938- अब तक]

छायावादोत्तर युग को दो भागो में बाँटा गया हैं ।
1):- प्रगतिवादी और प्रयोगवादी युग = [1938- 1943ई०]
2):- नयी कविता का युग = [1943- अब तक]

भारतेन्दु युग के कवि तथा उनकी रचनाऐ :-         
1):- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (कवि)- कवि वचन सुधा, प्रेम सरोवर , प्रेम तरंग, प्रेम माधुरी 
2):- बद्रीनारायण चौधरी - वर्षाबिंदु
3):- अंबिकादत्त व्यास - पावस - पचासा
4):- श्रीधरपाठक - वनाष्टक

दिवेदी युग के कवि तथा उनकी रचनाऐ :-
1):- मैथिलीशरण गुप्त - साकेत ,यशोधरा
2):- अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध ' - प्रिय-प्रवास
3):- सियाराम शरण गुप्त - अनाथ

छायावादी युग के कवि तथा उनकी रचनाऐ :-
1):- जयशंकर प्रसाद - कामायनी 
2):- सुमित्रानन्दन पंत- पल्लव, ग्राम्या
3):- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'- परिमल, गीतिका
4):- महादेवी वर्मा - दीपशिखा, सांध्यगीत

छायावादी युग की प्रमुख विशेषताऐ :-
❄️ सौंदर्य और प्रेम का काव्य
❄️ राष्ट्रियता की भावना
❄️ प्रकृति का मानवीकरण

छायावादी युग के रहस्यवाद कवि और उनकी रचनाऐ:-
1):- सुमित्रानन्दन पंत - पल्लव (रचना)
2):- महादेवी वर्मा - दीपशिखा (रचना)

प्रगतिवादी कवि तथा उनकी रचनाऐ:-
1):- रामधारी सिंह 'दिनकर' - उर्वशी
2):- शिवमंगल सिंह 'सुमन'- विंध्यहिमाचल से

प्रयोगवादी युग का नेतृत्व करने वाले प्रमुख कवि तथा उनकी प्रमुख रचनाऐ :-
❄️ सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय'
रचनाऐ = कितनी नावो मे कितनी बार ,तारसप्तक (मैगजीन)।

प्रयोगवादी युग के कवि तथा उनकी रचनाऐ :-
1):- सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय'
2):- गजानंद माधव
3):- मुक्तिबोध
4):- गिरिजाकुमार माथुर
5):- प्रभाकर माचवे
6):- नैमिचन्द्र जैन
7):- भारत भूषण
8):- रोमविलास शर्मा
सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' ने इन सात कवियो की कविताओ का संलकन करके 'तारसप्तक' (1943) का प्रकाशन किया।

नयी कविता का समय (अकविता )
नयी कविता के समय को अकविता भी कहा जाता है इसका आरंभ सन् (1954) मे जगदीश गुप्त और डा० रामस्वरूप चतुर्वेदी के संपादन मे नयी कविता के प्रकाशन से हुआ। यह कविता किसी वाद से बंध कर नही चलती।

नयी कविता के प्रमुख कवि तथा उनकी रचनाऐ :-
1):- केदारनाथ अग्रवाल - युग की गंगा
2):- भवानी प्रसाद मिश्र - बूंद एक टपकी
3):- धर्मवीर भारती- कनुप्रिया, ठंडा लोहा, गुनाहों का देवता , सूरज का सातवाॅ घोड़ा 
4):- लक्ष्मीकांत 'वर्मा' - नीम के फूल , सफेद चेहरे 
5):- जगदीश गुप्त - युग्म, बोधिवृक्ष
6):- डा० रामस्वरूप चतुर्वेदी - भाषा और संवेदना 
7):- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना - कांठ की घंटिया, बांस का पुल 

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

STUDENT LIFE IS THE GOLDEN LIFE


 


किसी ने सही ही कहा है कि छात्र जीवन स्वर्णिम जीवन है। स्कूल के दिनों में बिताया हर पल बहुत ही अविस्मरणीय, सुंदर और प्यारा है जो जीवन में कभी नहीं भुलाया जा सकता है| लेकिन आप में कुछ लोग शायद सोच रहे होंगे की यार पढ़ना भी तो बहुत पड़ता है | कुछ लोगो को लगता है कि स्कूल में तो हर महीने एग्जाम देने पड़ते है, तो स्कूल लाइफ गोल्डन लाइफ कैसे हुई| जिंदगी इतनी आसान भी नहीं होती है हमें कदम-कदम पर खुद को साबित करना होता है| स्कूल ही वो जगह होती है जहां पर हमें सिखाया जाता है की हम अपनी परीक्षा में कैसे खरे उतरे| स्कूल की छोटी - छोटी परीक्षाएं देते - देते हम इतने काबिल हो जाते है, की हमें पता भी नहीं चलता है कि कब हम जीवन की बड़ी - बड़ी मुश्किल से लड़ना सीख जाते है| स्कूल के वो प्यारे प्यारे दोस्त जो जीवन के किसी भी मोड़ पर दुबारा नहीं मिल सकते, वो सिर्फ हमें स्कूल में ही मिलते है और स्कूल के बाद तो जैसे वो कही गायब से हो जाते है|


स्कूल में हमें सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि उसके अलावा खेल कूद, नृत्य, संगीत, और योग का भी ज्ञान दिया जाता है| हमारे शिक्षक ही हमें अंदर से मजबूत और दृण संकल्पी बनाते है| वो ही हमा उज्जवल भविष्य की भावी नीव को तैयार करते है. जीवन के सबसे खूबसूरत पल हम अपने स्कूल में ही बिताते है. हमारा स्कूल ही ऐसी जगह होता है| जहां हमें प्यारे- प्यारे दोस्त मिलते है| स्कूल में हमें हमारे शिक्षक नैतिक शिक्षा का भी ज्ञान देते है ताकि जीवन के किसी भी मोड़ में हमें किसी के सामने शर्मिंदा न होना पड़े, और हम अपनी अच्छी आदतों से सभी के चहिते बन सके| जीवन में नैतिक शिक्षा का होना बहुत ही आवश्यक है, तभी हम अच्छे आचरण वाले कहलायेंगे| किताबी ज्ञान लेकर हम होशियार तो बहुत बन सकते है पर अच्छे इंसान नहीं बन सकते| स्कूल के दिनों में हम सभी आजाद पंछी होते है, पर पढाई समाप्त होने के बाद सभी बच्चे बड़े हो जाते है, और अपने अपने जीवन की मुश्किलों में फंस जाते है| कही कॉलेज की पढ़ाई का बोझ तो कही नौकरी न मिलने की दिक्कत अगर नौकरी मिल भी गयी है तो सैलरी से संतुष्टि नहीं है| बस इन्ही सब मे जिंदगी उलझ कर रह जाती है| इसीलिए स्टूडेंट्स लाइफ बेस्ट होती है न कोई चिंता न परेशानी बस खाओ पीओ और पढ़ो लिखो|


Someone has rightly said that Student life is golden life. Every moment spent during the school days is very memorable, beautiful and lovely which can never be forgotten in life. Some people thinks that they have to take exams every month in school. So how did the school life become the golden life. Life is not so easy, we have to prove ourselves step by step. School is the place where we are learn how to pass every exam of our life. We become so capable while giving top-notch examinations of school we don't know when we learn to fight with the biggest difficulty of life. Dear friends of school who cannot meet again at any point of life, We only meet us in school and after completing the school studies they can't meet again in life, like they disappeared from this world.


In school, we have not only learn bookish knowledge but Apart from this, knowledge of sports, dance, music, and yoga is also taught by teachers. Our teachers make us strong and visionary from within. They prepare the future foundation of our bright future. We spend the most beautiful moments of life in our school. Our school is the only one Place, Where we meet with dear friend. In school, our teachers also give us knowledge of moral education so that in any turn of life, we do not have to be ashamed of anyone, and we become friends of everyone with our good habits. It is very important to have moral education in life, only then we will be called good conducters. We can become very smart by taking bookish knowledge but we cannot become good human beings. We all are free birds during school days but after the completion of studies, all the children grow up and get caught in the difficulties of their lives. Burden of college studies, not getting a higher job anywhere, even if you have got a job, then there is no satisfaction from salary. Life is just a mess in all of them.That is why students life is the best and golden life no worries or problems. Just eat, drink, read and write.




मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

UNEMPLOYMENT


 
In today's time unemployment has become a major problem of our country. The 30% peoples are umemployed out of 100%, and its reason is that lack of jobs. If only singal man earn in home but, other family members are only for eating. It means that others are unemployed. They have no any work. If this continues, then one day less employed workers are left in our country. For controlling the problem of unemployment, government give more - n - more jobs to the peoples according there qualification and skills.







There are lots of educated peoples in our country but the problem is that they are unemployed. Everyone has a best qualifications degree but it is very difficult to get a good job. After searching a jobs for long time, some rich peoples start their business. But, poor people who have no money, how to start their own business. Lifetime they work hard and study well but, at the last moment they don't get a good jobs. 
Poor people of our country who grow up reading and writing their children with so much help so that their children can become their eyes in old age. So, just think what would have passed on their hearts if their children did not get jobs. Shortage of jobs is giving rise to problems like unemployment. 

If unemployment is looked at with rest, it is looking like an epidemic which has made the people of our country lame. You all are don't know how many people are suicide due to unemployment, Because after a while, families also leave us and after their that we have to reach our destination on our own strength. How long the family also kept in home and full our all wises. One day, we have to still earn money and eat at own strength.






Due to the unemployment, many peoples are suicide under the pressure of family society in  year. Inflation is getting high day by day. In such a situation, it is very difficult for the common man to survive. How will an unemployed person live in such inflation? To eradicate problems like unemployment government need to take an action. Government have to provide more jobs to everyone according to their skills so, that our country become great and powerful in every field.



कहानी - नारी महान है।

  कहानी - नारी महान है। बहुत समय पहले की बात है। चांदनीपुर नामक गांव में एक मोहिनी नाम की छोटी सी लड़की रहा करती थी। उसकी माता एक घर मे नौक...